गुरुवार, 7 जुलाई 2016

 बीजेपी उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव पर ध्यान केंद्रित करते हुए असम की तर्ज पर इस सूबे में भी सामाजिक समीकरणों को साधने में जुट गयी है। भाजपा राजभर के मतों को अपने पाले में करने के लिए सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भासपा के साथ गठबंधन करेगी।
 भासपा अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने बताया कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के निमंत्रण पर उनकी 17 जून को दिल्ली में उनसे बातचीत हुई थी। भाजपा से उनके दल का गठजोड़ तय हो गया है। भाजपा उनके दल को 20 सीट देने पर सहमत हो गयी है।

उन्होंने बताया कि आगामी नौ जुलाई को मऊ में अति दलित और अति पिछड़े वर्ग की पंचायत होगी, जिसमें भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी भाग लेंगे। इसी पंचायत में भाजपा और भासपा गठबंधन की औपचारिक घोषणा होगी। राजभर ने बताया कि भारतीय समाज पार्टी जिन 20 सीट पर चुनाव लड़ेगी उन्हें भी चिह्नित कर लिया गया है। इसका खुलासा बाद में एक रणनीति के तहत होगा।

मंगलवार, 5 जुलाई 2016

संदेश
विनम्र निवेदन
हमें अपार हर्ष के साथ आप सभी
राजभर भाइयो को बताने में ख़ुशी महसूस हो रही है,कि हमारे समाज के
परम आदर्श, आदरणीय,एवम् पूजनीय माननीय "श्रीमान आचार्य शिवप्रसाद सिंह राजभर "राजगुरु" जी को "जीवन गौरव"पुरस्कार से सम्मानित किया जायेगा,अतः आप
सभी स्वजातीय,सम्मानित  लोगो से विनती है अधिक से अधिक संख्या में पहुँचकर इस कार्यक्रम को सफल बनाये।
दिनांक :- 17 जुलाई 2016
समय :- 2 बजे से 7 बजे तक ।
स्थान :- गुरुद्वारा हॉल,मरोल पाइप
लाइन,अँधेरी (ईस्ट)मुम्बई-59

सोमवार, 4 जुलाई 2016

बस्ती

किंवदंतियों के अनुसार बस्ती अवध का हिस्सा था जो जंगलो से घिरा था ! ऐसा माना जाता है कि इसके अधिकतर भूभाग पर भर का राज था ! इसका कोई निश्चित प्रमाण प्रारंभिक इतिहास में उपलब्ध नही है! जिले में एक व्यापक भर राज्य के सबूत केवल प्राचीन ईंट लोकप्रिय इमारतों के खंडहर से जाना जा सकता है !

रविवार, 3 जुलाई 2016

गाजीपुर और राजभर इतिहास

मि. शोरिंग साहब का मानना है कि गाजीपुर का उत्तरी भाग सदियाबाद, पचोतर, जोहराबाद,लक्नेश्वर एक समय मे भरो के अधीन था ! भरो का एक सरदार जोहराबाद मे रहता था ! एक बार उस सरदार ने लक्नेश्वर डीह को उजाड़ दिया था ! लक्नेश्वर का किला भरो के अधिकार मे था ! आज से सात सौ वर्ष पहले अन्य जातियों कि अपेक्षा अदिक भू-भाग पर भरो का अधिकार था !

डॉ. ओल्धम कहते है कि बुद्ध काल के अवनति के समय भर और सायोरी इस देश पर शासन करते थे ! परन्तु कालांतर मे सव्धर्मियो के विरोध- पक्ष ग्रहण करने से नष्ट हो गए ! उस समय इनके सभ्यता का पूर्ण विकाश हो चूका था ! सन् १८७१ ई. मे जजिपुर मे ५६ हज़ार भर थे !

सर हेनरी एलियट का लिखना है कि भर वीर और चतुर कारीगर होते हुए भी नष्ट कर डाले गए इसका मूल कारण यह है कि जब राजपूतो से बलिष्ट जाति यवन, पश्चिमी उत्तरी भारत पर आक्रमण किये, तब राजपूतो को पंजाब आदि स्थान छोड़कर भागना पड़ा! धीरे धीरे मुसलमानों का प्रभुत्व बदने लगा और इन्हें हटना पड़ा ! पश्चिमी राजपूत जब भर राजाओ के यहाँ आये, तब उनकी दशा अच्छी नहीं थी ! भर राजाओ ने उन्हें अपने यहाँ उच्च पदवी दी लेकिन कालांतर मे राजपूतो कि शक्ति बढने पर वो राज्यों मे झगड़ा उत्पन्न करवा दिया और इस बात का फायदा उठा कर वो वहा सत्ता हाशिल कर लिए !

शनिवार, 2 जुलाई 2016

आजमगढ़

मि. डी. एल. ड्रेक ब्राकमेन ने आजमगढ़ के भरो के सम्बन्ध मे वर्णन करते है कि आर्यों मे से भर भी एक जाति है ! जो कशी,गोरखपुर क्मिस्नरियो मे पाए जाते है ! भर इस जिले मे सन् १९०१ ई मे ६९९६२ थे ! इन के रहने का मुख्य: स्थान देव गाँव, सगरी,मुहम्मदाबाद,घोसी आदि है ! इस जिले मे इस समय अधिक जातिया निवास कर रही है परन्तु एतिहासिक प्रमाणों द्वारा सिद्ध होता कि इस स्थान के प्राचीन निवासी भर तथा राजभर है !

दिह्दुअर परगना महल मे असिल देव नाम के एक राजभर राज करते थे ! जिसके राज्य के समय के तालाब और किले के खंडहर पाए जाते है ! जिसे अरारा के बचगुटी राजपूत अपने वंश का मानते है ! कौड़िया परगना अरौन जहनियांनपुर मे अयोद्धया राय राजभर राज करते थे ! ये असिल देव के वंसज काहे जाते है ! इस समय निजामाबाद एक प्रशिद्ध स्थान है ! यहाँ के राजा एक समय मे परीक्षक भर थे ! उन्होंने अनवन्क के किले को अपने अधिकार मे कर लिया था ! राजा परीक्षक ने धीरे धीरे भरो कि शक्ति प्रबल कि और पुनः सिकंदरपुर आजमगढ़ परगना पर अधिकार किया ! मि. शोरिंग साहब का उल्लेख है कि आजमगढ़ के भरो का राज्य भी रामचंद्र के राज्य के समय अयोध्या से मिला हुआ था ! इस जाति के लोग बहुत से किले,कोट,खाई,तालाब,कुए,पड़ाव आदि प्राचीन स्मृति छोड़ गए है !

आजमगढ़ जिले मे घोसी के निकट हरवंशपुर उचगवाना के किले के चारो और कुंवर और मघाई नदिया खाई नुमा घेरा बनाया गया है ! ऐसा ही कार्य निजामाबाद परगने मे अमीना नगर (मेहा नगर) के निकट हरिबान्ध है! प्राचीन खंडहरों मे चिरइया कोट भी इन्ही लोगो का है !

गुरुवार, 30 जून 2016

विश्व का दशहरी आम का पहला पेड़

इस समय आम का सीजन है मित्रो मगर आम का मौसम रहे या न रहे ,किन्तु जब भी आपको सफेदा ,हापूस ,नीलम ,चौसा ,दशहरी आदि आम की प्रजातियों का स्मरण आता है तब आपकी रसना बेमौसम भी आम के रसास्वाद से सराबोर होने लगती है / आम आदमी हो या आमदार या उससे भी ख़ास आदमी आम सब में एक सी ललक पैदा करता है / इसीलिए तो आम को फलों का राजा कहा जाता है / आम की प्रजातियों में दशहरी आम बेजोड़ है /क्या आप जानते हैं कि दशहरी आम कि उत्त्पत्ति कैअसे हुई ? आइये आज हम आपको दशहरी आम के प्रादुर्भाव कि कहानी सुनाते हैं / लखनऊ से पश्चिम हरदोई मार्ग पर नगर से तेरह किलोमीटर दूर काकोरी शहीद स्मारक से उत्तर रेलवे की हावडा-अमृतसर लाइन से उस पार डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर दशहरी गाँव है / इस गाँव में ही दो सदियों पुराना आम का पेड़ है जो संसार में दशहरी आम का पहला पेड़ होने का गौरव रखता है / लखनऊ में दशहरी गाँव के ताल्लुकेदारों की दशहरी कोठी है जो झाऊ लाल पुल और कचहरी रोड के बीच में है और दशहरी हॉउस के नाम से प्रसिद्द है / दशहरी हॉउस के वर्तमान नवाब सैयद असर जैदी के अनुसार दशहरी गाँव सहित उसके आसपास का इलाका भरों-राजभरों की संपत्ति था / उन्हीं भर्रो -राज भरों से नवाब के पूर्वजों ने इस पूरे इलाके को खरीद लिया था / इसमें वह दशहरी गाँव भी शामिल था जिसका नामकरण दशहरी आम के जनक दशरथ राजभर या दशरथी राजभर के नाम पर हुआ था / दशरथ नाम का राजभर -भर जाति का किसान था / उसके आम के अपने बाग़ थे / एक बार वह पके आमों को तोड़कर बेचने के लिए तीन आदमियों के साथ जा रहा था / चारों व्यक्ति पके आमों से भरी टोकनियाँ सिर पर रखे जा रहे थे / अचानक आंधी तूफ़ान के साथ तेज वर्षा होने लगी / सिर छुपाने के लिए कहीं सुरक्षित स्थान भी नहीं था / शीघ्र ही उन चारों ने आमों से भरी टोकानियाँ एक साथ एक ही जगह पर उड़ेल कर ऊपर से टोकनी औंधा कर रख दिया / किसी तरह प्राण बचाकर घर पहुंचे / लगातार तेरह दिनों तक वर्षा होती रही / सम्पूर्ण आम सड गए / इन सड़े आमों के ढेर से एक एक करके सभी अंकुरण जमने पर एक साथ निकले / अंकुरण का प्रान्कुरण तथा मूलांकुर संयुक्त रूप से निकला / हवा ,पानी और प्रकाश तीनों के आधार से एक ही विशाल बृक्ष तैयार हुआ / कई किस्मों के आमों के सत्व का मिश्रण एक ही बृक्ष के रूप में हो गया / जहाँ पर वह बृक्ष तैयार हुआ संयोग वश वह भूमि भी दशरथ राजभर के अधिकार में थी / दशरथ राजभर ने स्वयं उस बृक्ष की देखभाल की / समयानुसार आम के उस बृक्ष पर फल आये / आम की मिठास और फलों के आकार की चर्चा सर्वत्र फैलने लगी / अब यह आम भोजों -दावतों में उपहार, तोहफों के रूप में दिया जाने लगा / उस क्षेत्र के ताल्लुकेदारों को भी आम तोहफे के रूप में भेजा गया / कौन लाया यह आम ? राजमहल में चर्चा होने लगी / अरे ! भई ! दशरथी राजभर -भर लाया यह आम / इस प्रकार यह आम दशरथी के नाम से जाना जाने लगा / और फिर दशरथी से आगे निकलता हुआ यह आम दशहरी कहलाने लगा / आजकल इस आम को विभिन्न स्थानों पर देखा जा सकता है /यद्यपि इस आम के मिठास और आकार में अब antar होने लगा है किन्तु आज भी इसकी प्रसिद्धि वैसी ही बनी हुई है जैसी की दशरथी राजभर के समय थी / ( पुस्तक -राजभर शोध लेख संग्रह ,लेखक -आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ''राजगुरु'' ,पृष्ठ १६ ,१७ संस्करण २०१० / मेरा यह लेख भारत की विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में छप चुका है /)

बुधवार, 29 जून 2016

महाभारत काल मे राजभर
अब तक हम जैसे जान चुके है राजभर का आदिवंश या जड वंश नागवंश था जो आगे चलकर राजभर,भर,राय अदि मे स्थानतरित हो गया।हिंदू पौराणिक ग्रंथ पर गौर करें तो महाभारत में उल्लेखित है कि पांडु पुत्र अर्जुन ने नागकन्या उलूकी से विवाह किया था। अर्जुन और उलूकी के पुत्र अरावन थे, जिनके कई मंदिर दक्षिण भारत में मौजूद हैं। भीम के पुत्र घटोत्कच का विवाह भी एक नागकन्या से ही हुआ था जिसका नाम अहिलवती था ‍और जिसका पुत्र वीर योद्धा बर्बरीक था।
किंवदंतियों के अनुसार नाग प्रजाति के मानव कश्मीर में निवास करते थे। आज भी कश्मीर के बहुत से स्थानों के नाम नागकुल के नामों पर ही आधारित हैं, जैसे अनंतनाग शहर, शेषनाग झील। बाद में नागकुल के लोग झारखंड और छत्तीसगढ़ में आकर बस गए थे, जो उस काल में दंडकारण्य कहलाता था।

रविवार, 26 जून 2016

राजधानी श्रावस्ती
भर जाती के प्राचीन भर राजाओ, महाराजाओ मे खिरधर या खिराधर का नाम अत्यधिक प्रसिद्ध है। महाराजा खिरधर 275 ईस्वी मे श्रावस्ती के शासक थे। श्रावस्ती, अर्थात जहा सभी कुछ है (सब्बं अस्थि) बौद्ध काल की एक समृद्ध नगरी थी। सब्बं अस्थि से ही इसका नाम सावत्थी और तत्पश्चात श्रावस्ती हो गया। इस प्रकार का उल्लेख अनेक स्थानो पर मिलता है। पर यह उल्लेख नागवंश के राजाओ से इतना गुथा हुआ है की नागवंश या भारशिव नागवंश या भरवंश मे विभेद नही किया जा सकता। भारतीय इतिहास मे कुषाणों के पतन तथा गुप्त वंश के अभ्युदय के बीच का समय इतना जटिल है की लगभग सभी इतिहासकर क्रमागत  समकाल न पा सकने के कारण इसे इतिहास का “अंधकार-युग”(dark Era) मान बैठे। भारतीय इतिहास का यह युग 143 ईस्वी से प्रारम्भ होकर 320 ईस्वी पर समाप्त होता है इस प्रकार लगभग पौने दो सौ वर्षो का इतिहास उलझाव भरा सिद्ध कर दिया गया। इसी उलझाव भरे युग मे महाराजा खिरधर का नाम प्रकाश मे आता है। दूर दूर के सौदागर श्रावस्ती के बाजारो मे आकर पूछते यहाँ क्या सामान है (कि भिंड अस्थि), तो उन्हे उत्तर मिलता सभी कुछ है (सब्बं अस्थि) । यह अचिरावती नदी (राप्ती) के किनारे पर बसी हुई थी।
अंधकार युग मे अनेक भारशिव नागवंश के राजाओ के नाम प्राप्त हुये है। (देखे नागभारशिव का इतिहास पृष्ट 92) भरशीवो ने इस युग मे मिर्जापुर, मथुरा, अंबाला, ग्वालियर तथा बुंदेलखंड के अतिरिक्त श्रावस्ती (अवध) पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। कुषाणो के पतन के कुछ एतिहासिक उद्धरण यहा देना उचित समझ रहा हु।
1.   रामाशंकर त्रिपाठी के अनुसार कुषाणो के पतन के कारण अत्यधिक संख्या मे नागो तथा अन्य नृवंशो के उदय थे।
“the ourthrow of these kushan chieftains must have nowever been largely due to the rise, of the nagas and other native dynesties which prepared the way for the guptas for welding northern india eventually in to one mighty empire” (history of ancient india page 234)
2.       उक्त तथ्य का और स्पष्टीकरण काशी प्रसाद जायसवाल ने किया है। उनका मानना है की उत्तर भारत मे इस युग मे नागों या भरशीवो ने एक बड़े भूभाग पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया।
“this was a period when the nagas or their bharshiva branch dominated a large part of northen india (journal of the bihar and Orissa research society, march-june 1933, pp 3F)
3.       नागवंश के शासको का एक विस्तृत वर्णन करते हुए डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने कहा है की तीसरी शताब्दी के उत्तरार्ध तथा चौथी शताब्दी के पूर्वार्ध मे नागो के तीन समूह स्वतंत्र रूप से विदिशा, पदमावती, और मथुरा के शासक बन गए।
“then during the third and early part of 4th century A.D., northern india also was ruled by a number of naga kings is early proved by puranic as well as numismaric and epigraphic evidence. The independent groups of vidisa,campavali or padmavati and Mathura are distinctly mentioned in such a way as to leave little doubt of their importance” (dr. babasaheb ambedkar writing and speeches vol, 7 page 294)
4.       डाक्टर ईश्वरी प्रसाद ने भी कुषाणो के पाटन का मुख्य कारण नागभारशीवो तथा अन्य स्थानीय वंशो का उदय बताया है।
“modern research has brought to light that the fall of the kushan empire was followed by the rise of several dynesties like abhiras and the naga bharsivas”( a new history of india page 61)
5.       डाक्टर सी. सी. राव चौधरी ने कहा है की उत्तर भारत मे कुषाण-साम्राज्य चौथी शताब्दी मे नागो द्वारा पराजित होने पर समाप्त हो गया। ये नाग लोग उत्तरपथ के विभिन्न भागो पर समुद्रगुप्त की सेनाओ के विजय अभियान के पहले उनके ही द्वारा पराजित कर दिये गए।
Kushana kingdom of northern india disappeared in the  4th century a.d. having been conquered by the nagas. These nagas must have been ruling over  different portions of uttarpatha till they were themselves swept away before the conquring arms of samudragputa”
उक्त लेखो का आधार मुख्यता हमारे विभिन्न पुराण ही है। जिसमे नागवंश के अनेक राजाओ का नाम भी गिनाया गया है। “इलाहाबाद स्तम्भ अभिलेख” मे भारशीवो का जो गंगाजल से अभिषिक्त करने का उल्लेख आया है उससे पौराणिक व्याखानों को बल इलता है । इन तथ्यो के अतिरिक्त सैमूअल बील ने चीनी यात्री फ़ाहियान के भ्रमण पर जो पुस्तक लिखी है (the travesl of fahian {fo-kwo-ki} by Samuel beal ) उसके अनुसार बताया गया है की फ़ाहियान भारत का भ्रमण 399 ईस्वी से प्रारम्भ किया और 414 ईस्वी मे वह यह यात्रा समाप्त की। इस दौरान वह मथुरा, समकास्य, कन्नोज, श्रावस्ती, कपिलवस्तु , कुशीनगर, वैशाली, पटलिपुत्र, काशी इत्यादि अनेक राजधानियों का दौरा क्या। फ़ाहियान 410 ईस्वी मे श्रावस्ती पहुचा। उसने श्रावस्ती को स्वातिपुरम लिखा है। अपने विवरण मे फ़ाहियान लिखता है की “एक राजा जिसका नाम खिरधर था, स्वातिपुरम पर 275 से 302 ईस्वी तक राज किया” (देखे gazetteer of the province of oudh vol I {1877} पृष्ट 109) जनरल आफ दी रायल एशियाटिक सोसायटी  1881 के पृष्ट 570-71 से पता चलता है की मगध पर 275-300 ईस्वी तक गुप्त नामक शासक जिसे श्री गुप्त के नाम से भी जाना जाता है, राज किया, गुप्त के बाद उसका पुत्र घटोत्कक्ष (300-319) के सिंहासन पर बैठा। (वैशाली सील मे श्री घटोत्कच गुप्तस्य लिखा गया है।) संभवतः गुप्त वंश का यह सम्राट ही भर राजा खिरधर को श्रावस्ती से राजच्युत किया था। क्योकि घटोत्कच का राजरोहण खिरधर के राज्यच्युत किया था। क्योकि घटोत्कच अपना राज्य विस्तार करने मे खिरधर को हराया होगा। दुर्भाग्यवश यहा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। घटोत्कक्ष के पुत्र  चन्द्रगुप्त प्रथम  (319-335 ईस्वी) द्वारा वैशाली के लिच्छीवियों के पराजित होने के बाद, चन्द्रगुप्त  प्रथम ने साकेत को भी वहा के राजा को पराजित करके अपने राज्य मे विलय कर लिया। जाहीर है की साकेत की राजधानी श्रावस्ती थी। अतः इस युद्ध मे श्रावस्ती का राजा खिरधर ही पराजित हुआ होगा। अर्ली हिस्ट्री आफ इंडिया  पृष्ट  295-96  मे बेनसेंटस्मिथ ने पुराण का एक श्लोक उढ़घृत किया है।
अनुगंग प्रायगच साकेत मगधास्ताथा।
एतान जनपदान सर्वान  भोक्ष्यंते गुप्तवनशजा:।
परन्तु चन्द्रगुप्त प्रथम के राजरोहण (319 ईस्वी) तथा खिरधर के राज्यच्युत (302 ईस्वी) के समयकाल मे सत्रह वर्षो का अंतराल है।
अवध गजेटियर मे जोला बाहराइच का इतिहास प्रमुख से से दिया गया है। क्योकि इस जिले मे श्रावस्ती (सहेठ-महेठ) प्राचीन राजधानियों मे से एक थी। भर राजा खिरधर की भी यह राजधानी थी। राम ने अपने पुत्र लव को  यहा का राजा बनाया इसलिए यह क्षेत्र रघुवंशियों के कब्जे मे था। (bhars of lucknow) शीर्षक मे अवध गजेटियर वाल्यूम II पृष्ट  353-55 पर दिये गए विवरण के अनुसार सुरजवंशियों के पश्चात भर अयोध्या मे सब जगह व्याप्त थे। राजा परीक्षित ने उन्हे अयोध्या की जागीर दी। महाभारत आदि पर्व के अनुसार शमीक मुनि के पुत्र श्रींगी ऋषि ने महाराजा परीक्षित को नागराजा तक्षक से इस प्रकार पराजित होने का उल्लेख किया है –

योसौ वृद्धस्य
तातस्य तथा कृच्छगतस्य च।
स्कन्धे मृत्मवास्त्राक्षीत्पत्रगं।।
तं पापमतिसंक्रुद्धस्तक्षक: पत्रगोत्रम:।
आशिविषतिग्मतेजा मदक्यवल्चोदित:।।
सप्तरात्रादितो नेता यमस्य सदनं प्रति ।
द्विजानामवन्तारं कुरुणामयशस्करम ।।
श्रावस्ती प्राचीन काल से नागभारशीवो के अधिकार मे रही है। इसके अस्तित्व पर प्रकाश डालते हुये हुये अवध गजेटियर मे जो विवरण दिया गया है उससे “अंधकार युग” मे भरशीवो का प्रकाश फैलता हुआ दिखाई देता है.-
“The gleam of light that the bhddhist pilgrim’s records therw upon  the history of this part of the country completely fails us after the fifth century A.D.  and for tour hundred years there is no clue beyond the merest tradition the state of the country or the races which ruled it. In common with rest of eastern oudh the district is said to have been under the dominion of the bhars during this period and every  ruin with any claim to antiquity ascribed to these people. The name of bahraich itself finds another derivation from this race.” (the gazetteer of the N.W.P., of oudh vol I (1877) p. 110)
प्राचीन समय के भग्नोवशेषो का लगाव भरशीवो से गुथा हुआ है। बहराइच नाम की उत्पत्ति ही भारशिव भर वंश से हुई जो स्वतः “अंधकार युग” मे एक प्रकाश फैलाता है। महाराजा खिरधर भी इसी युग का एक प्रकाशमान शासक है। श्रावस्ती उस अंधकार युग की एक प्रकाशित राजधानी है। जो राप्ती नदी के एक किनारे पर बसी है। अनेक गावों के नामकरण भर जाती के दिये हुये है बहराइच जिले के उत्तर मे सहेठ-महेठ ही श्रावस्ती राजधानी थी।
“in hismpur pargana there are a number of wells, small ruined forts and old village sites the principal of which in purana, karnal, jarwal, mohri, bhakaura, sakanth, kasehri buzurg,hasna mulai, waira kazi and bhauli dih and of which according to local tradition, owe their existence to the bhars, which in the north of the large city forts descrived above sahet-mahet and charda, are also by the common folk belived to have had a like origin.” {(the gazetteer of the N.W.P., of oudh vol I (1877) p. 111}
अवध गजेटियर के उक्त विवरण मे शीर्षक “भर और भरो के भग्नावशेष”(“Bhars And Bhar Remains”) के माध्यम से उनके प्रमुख गांवो मे पूराइना, कर्नल, जरवल, मोहरी, भकौरा, संकथ, कसेहरी बुझुर्ग, हसनामूलई, बैरा काजी और भौली डीह का नाम गिनाया गया है। सहेट-महेट और चर्दा की उत्पत्ति भी भर शासको द्वारा कही गयी है। “अंधकार युग” पर प्रकाश डालने के उद्देश्य से अवध गजेटियर के पृष्ट 111 की कुछ और पंक्तिया देखी जा सकती है। जिसमे भारशीवो की उतपति के संबंध मे भी संभावना व्यक्त की गयी है जिसे गुप्त वंश के शासको ने पराजित किया था।
“whenever they were aborigins or the remnants of chattri races which remaided in this part after their suppression by the kings of the gupta dynesty and which as soon as that dynesty fell rose upon its ruins to an independent position with what approach severein power until in their turn they had to give way befor the advancing wave of rajputs from the west, can only as yet be matter of conjuncture.”
या तो वे भर लोग आदिवासी थे या शेष बचे हुये क्षत्रिय (परशुराम के क्षत्रियो के विनास से बचे हुये), जो इस भूभाग पर आबाद हो गए। गुप्त वंश के राजाओ द्वारा पराजित होने पर वे यही बस गए और जैसे ही अवसर मिलता वे स्वतंत्र हो जाते थे। इस प्रकार वे तब तक संघर्ष करते रहे जब तक पश्चिम मे राजपूतो का साम्राज्य स्थापित नहीं हो गया। अर्थात राजपूत-युग की स्थापना नहीं हो गयी। यह विषय रहस्यो से भरा हुआ है। चंदेल वंश भर जाती से बन गया। सर हेनरी इलियट इसी तथ्य को लेकर एक सिद्धान्त का प्रतिपादन भी कर दिया, जिसमे कहा गया है की भरो और अहीरो से परस्पर वैवाहिक संबंधो के अनेक प्रमाण उपलब्ध है। (कृपया देखे – अवध गजेटियर (1877), वाल्यूम I,पेज 111 स्प्लीमेंट ग्लासरी आफ इंडियन टर्म्स, वाल्यूम I {1845} पेज 72 लेखक एच इलियट, सेंसस आफ इंडिया, वाल्यूम XVI, पार्ट 1 1891 , 220 लेखक डी.सी. बैली, दी ट्राइब्स अँड कास्ट्स आफ दी सेंट्रल प्रांविसेस आफ इंडिया वाल्यूम।। 244 लेखक आर वी रुसेल )।
महाराजा खिरधर की राज्यसीमा के विषय मे विस्तृत विवरण अप्राप्त है। अवध गजेटियर, भाग एक, पृस्ठ 40 तथा पृष्ट 364 से पता चलता है की लखीमपुर खीरी जिले का नाम महाराजा खिरधर के नाम से पड़ा है। उन्नाव जिले के परगना पुरवा मे स्थित डन्ड़िया खेरा को भी महाराजा खिरधर ने बसाया। महिलाबाद, ककोरी, बिजनौर तथा मंगलसी क्षेत्र श्रावस्ती से जुड़ा हुआ था। अंबाला, मथुरा तथा मिर्जापुर पर उस समय क्रमशः नागवंशी शासक नागदत्त(295 ईस्वी), नगसेन (298 ईस्वी ) और एक हरशिव नाग विरसेन को कुछ विधद्वानों ने ही खिरधर कहा है । पर इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं दिया गया है। कुमाऊ जिले की विवरण मे एडविन एट्किंसन ने कहा है की इन्द्र्प्रस्थ पर राजा परीक्षित से प्रारम्भ होकर लक्ष्मीचंद के अंत तक 29 राजाओ की एक राजवाली प्राप्त है जो वहा के शासक हुये। इस राजावली के अंतिम शासक को उसके मंत्री मित्रसेन ने कत्ल कर दिया। मित्रसेन के वंश के नौ राजाओ ने इंद्रप्रस्थ पर शासन किया। इस वंश के अंतिम शासक मत्तीमल सेन का वध उसका मंत्री वीरबाहु ने कर दिया। वीरबाहु या धीरबाहु को ही कुछ इतिहासकर  विरसेन भी कहते है है। कर्नल टाड , वार्ड तथा कनिघम ने खिरधर, धुरंधर तथा धीरसेन कहा है जो 24 दिन सात महिना तथा 42 वर्ष तक राज किया। (the Himalayan districts of the north-west province of India, 1884 vol page 411)
मुसलमान इतिहासकारो ने एसी संभावना दी है की शायद खिरधर को  ही खिरधर कहा हो क्योकि कुमाऊ क्षेत्र मे उस समय नागभरशीवो का बाहुल्य था। इसलिए ऊक्त संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। एट्किंसन ने जो विवरण दिया है वह देखिये।
“according to the received kumaon version of the rajavali 29 princes ruled indraprastha beginning with parikshit and ending with lacchhmichand. The last price of this line was murderd by mitrasen, who was ucceeded by nine members of this family, ending with mattimalsen. He in tern was salim by his misiter birbahu (or dhirbahu), whose descendets ruled in indraprastha for fifteen generations ending with udaisen. The names of the 4rth dynesty are taken from my copy, tod, word and Cunningham”
मथुरा इंद्रप्रस्थ (वर्तमान दिल्ली) से अधिक दूर न होने के कारण  विरसेन के वहा के शासक होने से पूर्ण रूप से इंकार नहीं किया जा सकता। यदि इस तरह यह गुत्थी सुलझा ली जाती है तो अंधकार युग मे एक प्रकाशमान  सूर्य का पदार्पण हो जाता। पर इस तथ्य को और सुलझाने के लिए धैर्य व लगन की आवश्यकता है। अवध गजेटियर से ही सिद्ध होता है की परीक्षित के बाद अवध का सम्पूर्ण क्षेत्र भारशीवो के अधिकार मे हो गया। स्कन्द पुराण के अवनति खंड, अध्याय 77 के अनुसार कुशस्थली के दक्षिण मे स्थित “नागात्रय” नागो या भारशीवो का विस्तृत प्रदेश था।

कही कही पर खिरधर का नाम “खिरधर सेन “ भी लिखा गया है। ऐसा प्रतीत होता है की बौद्ध धर्म नामावली से प्रभावित होकर भारशिव राजाओ  ने अपने नामो के साथ सेन, देव, प्रिय, आनंद, चंद्र, नाथ, मित्र, भद्र, पाल इत्यादि उपनाम जोड़ा है। ऐसी परंपरा यह सिद्ध करती है की भर जाती के लोग अधिकतर बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। यह परंपरा मगध के भारशिव सम्राट बिंबिसार, से ही प्रारम्भ हो गयी थी जो बौद्ध धर्म मे दीक्षित हुआ था।
लखीमपुर खीरी मे स्थित आज का परमहंस आश्रम महाराजा खिरधर के शिकारगाह के खंडर पर बनाया गया है। इसी स्थान पर खिरधर का कभी विश्राम-स्थल बनाया गया था। आज उसका केवल भग्नावशेष ही दिखाई पड़ता है। यहा दुर्ग की स्थापना की गयी थी। विजयनगर का राजा शक्तिमान सिंह इस दुर्ग पर कालांतर मे आक्रमण कर अपने साम्राज्य का हिस्सा बना लिया। इसे शकतेश्गड भी कहा जाता है।
महाराजा खिरधर द्वारा निर्मित अनेक देवल आज भी कई स्थानो पर विधमान है। मगध के नाग भारशिव शासक महाराजा बिंबिसार के बाद नाग भारशीवो का पुरुत्थान करने के लिए खिरधर ने अपने प्राचीन नाग राजाओ की यादगार मे कई देवल बनवाये। इनमे से भर-देवल जो की कर्कोटक नाग की तथा भीतरगांव का देवल झिझी नाग की यादगार मे बनवाये गए है, प्रसिद्ध है, इन दोनों देवलो का वर्णन करना यहा अनुपयुक्त न होगा।

भर देवल
इस देवल का वर्णन 1838 ईस्वी मे बंगाल का अंग्रेज़ मेजर किट्टोई (MAJOR KITTOE) ने अपनी पुस्तक “इल्यूस्ट्रेशनस आफ इंडियन आर्किटेक्चर” मे किया है ( illustrations Of Indian Architecture, By MAJOR KITTOE, Thacker And Co. Calcutta 1838 Long Folio) किटटोई ने इस देवल का चित्र भी अपनी पुस्तक मे प्रकाशित किया है और इसे “कर्कोटक नाग का मंदिर” बताया है, (Temple Of Karkotak Nag). मेजर जनरल कनिघम ने 1884-85 ईस्वी मे एक सर्वे के दौरान जब इस देवल को देखा तो उन्हे किटटोई के विवरण की याद ताजी हो गयी। कनिघम ने किटटोई द्वारा दिये गए विवरण को सारांश रूप मे चित्र के साथ अपनी पुस्तक “आर्कियोजिकल सर्वे आफ इंडिया” मे दिया है । मई इस देवल के चित्र को देख रहा हु पर दुख इस बात का है की पुस्तक का पृष्ट इतनी जर्जर अवस्था मे है की इसका चित्र पुनः नहीं लिया जा सकता है फोटो कापी कराना दिक्कत भरा काम जन पड़ रहा है। (कृपया देखे- Archaeological Survey Of India, Report Of A Toawn In Bundelkhand And Rewa In 1883-84, And Of A Tour Iin Rewa Bundelkhand, Malwa And Gwalior In 1884-85, By Major General A Cunningham, CSI, CIF; Vol XXI- Part I&II(1885)
इस पुस्तक के पृष्ट index, plate III,IV पर यह चित्र छापा गया है और विवरण पृष्ट 4,5,6,7 पर दिया गया है। कनिंघम ने किटटोई द्वारा दिये गए चित्र को दो-तिहाई कमकर वह चीत्र छापा है और किटटोई के शब्दो को इस प्रकार दिया है।
“The Elegant Ruin Represented In The Accompanying Plate (I Am Given A Representation Of Kittoe’s View In Plate Iv, Reduced To Two –Thirds Of Original) Is Situated On The Bank Of Jumna, On The Vundelkhan Side, A Few Miles Below The Town Of Mhow. It Is Dedicated To Siva Uder The Denomination Of Karkotak Nag. The Work Is Executed Is A Most Eexquisite And Elaborate Style, In Hard, Close Grained Sand Stone. The Greater Part Indeed, The Main Body, Of Building Has Long Since Fallen To The Ground. The Only Portion Remaining, And Which, I Hae Faintly Attemted To Represent, Is That Still Existing Of The Nandi Sabha (Or Portico), In Which Siva’s Bull Nandi Is Always Placed. It Is Not Known Who Existing Of The Nandi Sabha (Or Portico)In Which Shiva’s Bull Nandi Is Always Placed. It Is Not Known Who Existed This Truly Beautiful Specimen Of Hindu Scul[Ture And Archetectur. There Is A Small Village Close By; The Superstitious Inhabitants Of Which Informed Me That A Hudge Black Serpent Or Nag, Inhabits The Temple, And Is Occasionally Visible.”

अथार्थ “ध्वन्शावशेष का सुंदर चित्र प्ले मे प्रदर्शित किया गया है (मई जनरल कनिंघम) किटटोई द्वारा दिये गए चित्र को लगभग दो तिहाई-भाग छोटा करके प्लेट IV मे चित्र दिया हु )
जो की यमुना नदी के किनारे पर स्थित है और महुवा नगर से कुछ मील नीचे की तरफ, बुंदेलखंड की ओर है। यह कर्कोटक नाग के नाम से बना हुआ शिव को समर्पित किया गया है। इस पर चित्रकारी का काम उत्तम और सुसमपत्र ढंग से पूरा किया गया है। जो तरासे गए सख्त, एक दूसरे से जुड़े हुये, बलुआ पत्थरो से निर्मित है। मुख्य देवल का विशाल भाग वास्तव मे कुछ समय पहले जमीन पर गिर चुका है। केवल उसका कुछ ही भाग शेष बचा है। और उसी बचे हुये भाग को, जो की अभी भी असीत्तव मे है, इसी के धूधले चित्र को मैंने प्रदर्शित किया है, यह बचा हुआ भाग नंदी सभा का है जहा शिव का बाई नंदी सदैव रहता था। इसे प्रवेश-स्थल भी कहते है। यह अज्ञात है की किसने इस वास्तविक सुंदर, हिन्दुओ की मूर्तिकला और सुंदर शिल्पकला के नमूने को नष्ट किया। इस देवल से सटा हुआ एक छोटा सा गाँव है, जहा के अंधविशवाशी लोगो ने मुझे बताया की एक बड़ा नाग या साप मंदिर मे निवास करता है जो कभी-कभी दिखाई देता है”
उक्त विवरण किटटोई ने अपने भ्रमण के दौरान 1838  मे दिया था। मंदिर का ध्वन्शाशेष यमुना नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। यह कूथारो (kutharo) गाँव स बिलकुल सटा हुआ है। यह महुआ घाट के पूरब मे ठीक 11 मील दूरी पर तथा इलाहाबाद से पच्चीस मील पश्चिम दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित है। कुछ विद्वानो ने महुआ को मऊ कहा है, जो इलाहाबाद मे स्थित है। स्मरण रहे की भर आबादी के अधिकतर गाँव को मऊ कहा जाता था। अतः मऊ भरो द्वारा बसाया गया बताया जाता है। कनिंघम जब 1884-85 मे यहा का दौरा किया तो उसने लिखा है की देवल की स्थिति  आज जानकरी मे एक तरह से पहुँच के बाहर हो गयी है। यहा अब कुछ भी नहीं बचा है। सिवाय उतार चढ़ाव भरी पगडंडी के। यह पगडंडी यमुना के पश्चिमी किनारे पर 11 मील तक चलती है और पूरब मे चार मील चलकर एक बड़े गाँव  प्रतापपुर तक जाती है, जहा पत्थर की खाने स्थित है। कनिंघम ने इस प्रकार विवरण दिया है-
“the bar-dewal must have been a magnificent temple. Its position on the high projecting point overlooking the jumna is very fine one, and both in size and iin decoration the fan was worthy of its site. It is besides raised on a plinth or platform of 11 feet.” {archaeological survey of india, vol XXV (1885) page 5}
अर्थात “बर” (भर) देवल सुंदर कलाकृति का नमूना था। इसकी सुंदर निर्माण योजना उच्च कोटी की थी जो यमुना के दोनों किनारो से दिखाई देती थी। इसकी सज्जा किनारो से अति सुंदर लगती थी। इसके पायदान “11फीट से प्रारम्भ होकर बनाए गए थे”।
बर शब्द की व्याख्या कनिंघम ने कही-कही  बरगद के पेड़ से भी की है। पर स्थानीय लोगो के अनुसार इसे भर-देवल कहा जाता है। कनिंघम को मंदिर के निकट एक बरगद का पेड़ भी मिला था। इसी कारण इस मंदिर को बर-देवल  उन्होने कहा। बी ए स्मिथ ने बर शब्द का स्पष्टीकरण दिया है। -
“the name is usually spelt. “bhar” but spelling “bharr” would accurately represent the pronunociation.”
स्थानीय लोगो ने बताया की इसका निर्माण श्रावस्ती के महान एक भर राजा ने करवाया था। डाक्टर काशी प्रसाद जायसवालने कहा है की इसकी छत चिमटी थी और बराण्डे की छत पत्थरो की बनी हुई ढालू थी। इसका निर्माण काल अभी तक पहेली बना हुआ है। इसमे जो इंटे प्रयोग की गयी है वे मध्य प्राचीन इतिहास की जन पड़ती है।
“the root of this temple was flat, with sloping stones over the verandah. The cusped racket, which is a restoration on the plate by Cunningham, is found generally in mediaeval architecture, but no one can be definite as to how ancient its origin is. The large bricks found there and other features are decidedly early.” {HISTORY OF INDIA 150 A.D. TO 350 A.D. PAGE 30 BY K.P. JAYASWAL.}

भितरगांव का देवल
रिंद या अरिंद नदी के किनारे पर एक प्राचीन नगर बसा था जिसका प्राचीन नाम फूलपुर था। इसे फूलो का नगर भी कहा जाता था। आज इसी नगर पर एक गांव बस गया है जिसका नाम भितरगांव है यह गांव घाटमपुर विधान सभा क्षेत्र (उत्तर प्रदेश विधान सभा क्षेत्र 294 कानपुर) के अंतर्गत आता है। विधान सभा चुनाव  1993 मे इस क्षेत्र से जनता दल के राकेश सचान ने सपा के विजय सचान को 4476 मतो से  हराया था। जनरल ए कनिंघम ने भितरगांव की स्थिति के बारे मे वे लिखते है-
“the village of bhitargaon or bari-bhitari is situated just half way between Cawnpore and hamirpur, at 20 miles to the south of the former place and 10 miles to the north-west of kora-jahanabad.”(ARCHAEOLOGICAL SURVEY OF INDIA, VOL XI, PAGE 40  (1880) A. CUNNINGHAM)
गाँव भितरगांव या बड़ी-भीतरीकानपुर तथा हमीरपुर के ठीक मध्य रास्ते मे स्थित है। यह कानपुर से 20 मील दक्षिण तथा कोरा-जहानाबाद  से 10 मील उत्तर-पश्चिम की ओर बसा है।
देवल का यधपी बड़ा भाग धराशायी हो चुका है फिर भी उसके मुख्य द्वार का चित्र कनिंघम ने उक्त पुस्तक के पृष्ट 15 (index palte15) पर दिया है। दुख है की पुस्तक की फोटो कपि करना असंभव है। भितरगांव मे आज भी लोग इस जीर्ण शीर्ण मंदिर या देवल को झिझी नाग का देवल कहते है। ये झिझी नाग कौन थे? इसका स्पष्ट उल्लेख  कही नहीं किया गया है। एक जनश्रुति के अनुसार झिझी नाग कर्कोटक वंश के एक शासक थे जो इस क्षेत्र मे राज करते थे। उन्होने यहा एक सुंदर पुष्प वाटिका का निर्माण करवाया था। कालांतर मे इसी स्थान पर एक सुंदर नगर बस  गया। महाराजा खिरधर ने इस मंदिर मे झिझी नाग की भव्य प्रतिमा स्थापित की तभी से इस देवल का नाम “झिझी नाग” पड़ा। आज इसे स्थानीय निवासी भितरगांव का देवल कहते है।
यह देवल उत्कृष्ट कलाकृति का एक नमूना है जो सुंदर, अच्छी तरह पकी हुई 18*9*3 इंच की ईटों से बनाया गया है। 66 वर्गफीट, का यह देवल पौरव की ओर प्रवेशद्वार से युक्त है। इसकी दिवारे 8 फीट मोटी है। जो 47 फीट लंबी 36 फीट चौड़ी है।
“the brick temple named dewal is square of 66 feet, with the corners and a projecting, portico or entrance hall on the east. The walls are 8 feet thick. Altogether it is 47 feet long and 36 feet broad. It is built through out of large well burn bricks 18*9*3 inches, laidin mud morter.”(ARCHAEOLOGICAL SURVEY OF INDIA, VOL XI, PAGE 41  (1880) A. CUNNINGHAM)
कनिंघम ने बताया है की ईटों से बना हुआ प्राचीन समय का एशिया भर मे ऐसी सुंदर कलाकृति का कोई देवल नहीं है। इस सुंदर देवल को कब-किसने तोड़ा इसका प्रमाण उपलब्ध नहीं है। तेरहवि शताब्दी के पूर्वार्ध मे महाराजा सरसौल इस क्षेत्र के राजा थे भर जाती के सरसौल महाराजा ने इस देवल का पुनरोद्धार करवाया  था। ऐसा भी उल्लेख मिलता है पर महाराजा सरसौल का इतिहास अज्ञात है। कानपुर जिले मे सरसौल एक विधानसभा क्षेत्र है जो इसी राजा के नाम से जाना जाता है। घाटम भी एक भर राजा का नाम था।

शनिवार, 25 जून 2016

राजभर समाज विकाश की राह पर
शिक्षा शेरनी का वो दूध है जो पीता है वो दहडता है
प्रिय राजभर मित्रो अपार हर्षोल्लास के साथ यह बताते हुये अति प्रसन्नता हो रही है की राजभर समाज के राजगुरु श्रीमान आचार्य शिवप्रसाद सिंह राजभर जी को राजभर विकास संस्था द्वारा जीवन गौरव पुरष्कार से 17 जुलाई 2017 को  सम्मानित किया जा रहा है। अतः मै आचार्य जी को बहुत बहुत शुभकामनाए देता हु।

रविवार, 19 जून 2016

भारत का इतिहास [६००-१२०० ई ,] के पृष्ठ ३८५ -भारतीय इतिहास का पूर्व मध्य युग में सत्यकेतु विद्यालंकार कहते हैं कि चंदेल ,गहडवाल आदि कतिपय राजपूत वंशों के विषय में यह मत प्रतिपादित किया गया है कि वे गोंड ,भर आदि उन जनजातियों के वंशज थे ,जो भारत की मूल निवासी थीं / कुछ लोगों का मत है कि भारत का नाम भी मूल जाती भर के कारण पड़ा / पंडित राहुल सांकृत्यायन ने इश भावना को सप्तमी के बच्चे नामक पुस्तक की एक कहानी में व्यक्त किया है / अपनी पुस्तक साम्यवाद ही क्यों ? के पेज ५ [मनुष्य की उत्पत्ति और विकास ] में राहुल जी भरों को आदि जातियों में मानते हैं / डा , नर्मदेश्वर प्रसाद जी ने जिन भारशिव नागों का उल्लेख किया है ,इनका रोचक इतिहास रहा है / वे पहले केवल भर थे /मिस्टर फ्लीट ने अपनी पुस्तक गुप्त इन्स्क्रिप्सन में वाकाटक लेखकों के एक ताम्रपत्र का हवाला देते हुए ,लिखा है कि इन भारशिवों ने जिनके राजवंश का प्रारंभ इस प्रकार हुआ था --शिवलिंग का भार अपने कन्धों पर उठा कर शिव को भलीभांति परितुष्ट किया था / उनका अभिषेक भागीरथी के पवित्र जल से किया गया / उन्होंने अपने पराक्रम से राज्य प्राप्त करके दस अश्वमेध यज्ञों द्वारा अवभृथ स्नान किया था / उक्त ताम्रपत्र से स्पष्ट है कि शिवलिंग का भार अपने कन्धों पर उठाने से इस वंश का नाम भारशिव पड़ा / भारशिव /राजभरों के बारे में दिनांक १७-१०-१९७७ के स्वतंत्र भारत के अपने लेख भारशिव और राजभर में अमरबहादुर सिंह अमरेश लिखते हैं कि कोई इन्हें भारत का मूल निवासी , कोई भरवतिया जाती के अहीरों तथा कोई राजभरों से सम्बन्ध जोड़ता है / वे आगे कहते हैं कि मेरा अपना विश्वास है कि ये भारशिव राजभर ही हैं जो आज अछूतों के स्टार के समझे जाते हैं / ये लोग अपनी जाती के साथ अपने पुराने राजमोह को अब तक नहीं छोड़ पाए और गाजीपुर। बनारस ,जौनपुर तथा चौबीस परगना के भर अपने को राजभर कहते हैं / ये नागवंशी हैं / ये बहुत बहादुर तथा लड़ाकू होते थे / इनका प्रारंभिक जीवन धार्मिक , सदाचारी तथा सादा था /बाद में वे मदिरा पीने लगे / इसके लिए वे हौज बनवाते थे / वही प्रवृत्ति इनके विनाश का कारण बनी / कालांतर में ये अत्यंत विलासी भी हो गए / जैसा कि ऊपर बताया गया है , भर नामक एक वीर जाति से चन्देल राजपूतों की उत्त्पत्ति हुई / १६ वीं सदी तक ये राजपूत मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड पर राज्य करते रहे / कुछ विद्वानों के मतानुसार भर जाति के लोग जो कि कौशाम्बी ,प्रयाग तथा काशी के दक्षिणी भाग में स्थित थे , चंदेलवंशी राजपूत कहलाये / शेष राज्यों के ज्यों के त्यों रह गए / उत्तरी भारत के अधिकांश भाग पर उनका शासन था / भरों के विषय में निम्न मत भी प्रासंगिक हैं ----; [१] -मिस्टर थामसन कहते हैं कि वे अवध के वीर एवं कुशल शासक थे / [२] -सरस्वती के संपादक पंडित देवीशंकर शुक्ल ने भरों को भारशिवों का वंशधर माना है / [३] -बी,ए , स्मिथ ने अपनी पुस्तक अरली हिस्ट्री आफ इंडिया में भर जाति को प्राचीन क्षत्रिय माना है / [४] -के,पी , जायसवाल का मत है कि भर नागों तथा भारशिवों के वंशज हैं / [५] -डा,हेनरी इलियट भर जाति को अत्यंत वीर ,पराक्रमी तथा उच्च वर्गीय मानते हैं / [६] - डा, बी,ए , मानते हैं कि भर राजा कशी ,पाटलिपुत्र तथा अवध के कुशल शासक थे /बिहार शब्द भर शासक द्वारा ही दिया गया है / [७]- जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी का कथन है कि ११९४ ईस्वी में भर सरदारों ने अवध पर अपना साम्राज्य स्थापित किया तथा पचास वर्षों तक कुशलता पूर्वक राज्य किया / ab बहराइच के भर शासक सुहेलदेव पर लौटते हैं जिन्हें विहिप पासी शासक बता रही है / भर राजा सुहेलदेव का जन्म १००९ ईस्वी में बसंत पंचमी के दिन श्रावस्ती में हुआ था / इनके पिता बिहारीमल १०२० ईस्वी में श्रावस्ती पर शासन करते थे / बिहारीमल के चार पुत्र सुहेलदेव , रूद्रमल ,बागमल व सहरमल थे / सुहेलदेव किशोरावस्था से ही पिता के साथ आखेट के लिए जाया करते थे /उनकी प्रतिभा और शौर्य देख कर उनके पिता बिहारीमल अत्यंत प्रसन्न होते थे / इसलिए १८ वर्ष की उम्र में ही १०२७ ईस्वी में बिहारीमल ने उन्हें श्रावस्ती का सम्राट घोषित किया। शासन व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने हेतु बिहारीमल ने चन्देलवंश के गंड युवराज विद्याधर को शासन का मंत्री चुना /सुहेलदेव के अंगरक्षकों में सामंत जगमनी, बलभद्र देव , तथा उनके अनुज रूद्र मल [ भूराय देव ] Fks/ शेष २१ सामंत गण उनकी शासन व्यवस्था के अंग थे / सुहेलदेव का साम्राज्य उत्तर में नेपाल से लेकर दक्षिण में कौशाम्बी तक तथा पूरब में वैशाली से लेकर पश्चिम में गढ़वाल तक फैला था / भूरायचा का सामंत सुहेलदेव का छोटा भाई भूराय देव था , जिसने अपने नाम पर भूरायचा दुर्ग इसका नाम रखा था / श्री देवकीप्रसाद अपनी पुस्तक राजा सुहेलदेव में लिखते हैं कि भूरायचा से भरराईच और भरराईच से बहराइच बन गया / प्रोफ़ेसर के,एल,श्रीवास्तव के ग्रन्थ बहराइच जनपद का खोजपूर्ण इतिहास के पृष्ठ ६१-६२ पर अंकित है --इस जिले की स्थानीय रीति रिवाजों में सुहेलदेव पाए जाते हैं / बहराइच के इतिहास की घटनाओं की गणना की तिथि हमें सुहेलदेव के शासन काल से मिलती है / अमृतलाल नागर ग़दर के फूल के पृष्ठ ८९ में बहराइच के बारे में लिखते हुए कहते हैं कि बहराइच का शद्ध नाम भरराइच है / भरों की पहेली आजतक किसी इतिहासकार ने नहीं सुलझाई ,जबकि बहराइच का ऐतिहासिक महत्त्व भरों ने खूब बढाया / वे आगे लिखते हैं कि ११ वीं शताब्दी में सैयद सालार मसूद नामक मुस्लिम फ़क़ीर ने भारत पर आक्रमण किया / यह सुल्तान महमूद गजनवी का भांजा माना जाता है / जेहाद यानी धर्म युद्ध की भावना से इस देश को खूब रौंदा था / अवध में मैं जानता हूँ कि सैयद सालार कई पीढ़ियों के लिए आतंक का प्रतीक बन गया था। उसने अयोध्या सहित अनेक स्थानों का नाश किया / अंत में सन १०३४ ईस्वी में उसने भर राजा सुहेल देव के हाथों मृत्यु पाई / सेंसेस आफ इंडिया १८९१ के वाल्यूम १६ पार्ट १ के पेज २१७ में डी ,सी, बैली ने लिखा है कि - यह कहने के लिए अधिक होगा कि पूजा के केंद्र में सैयद सालार मसौदी गाजी , महमूद सबक्ताजिन की बहन का पुत्र जो कि १०३३ में गोंडा के भर , थारू या राजपूत राजा द्वारा नेतृत्व करते समय बहराइच के समीप हराया तथा मारा गया था / भर शासक सुहेलदेव की मृत्यु १०७७ ईस्वी में किसी बीमारी के फलस्वरूप हुई /

गुरुवार, 16 जून 2016

भरजाति  के उपनाम

1,  अनेक जिलो मे अनेक उपनामो से पुकारे जाते है और विभिन्नता से वे बोर,भोर,भोवरी,बैरिया और भैरिया,बरिया,बौरी,भैराय और अन्य उपनामो से जाने जाते है,
2 ,  मै उदघृत कर चुका हूॅ कि भवर (भावर) या भर के बहुत से प्रदेश है,
3,   वे राजभर,भरत और भरपतवा नाम से भी जाने जाते है,
4 ,  साधारण भरो के लिए खुॅटैत तथा विशिष्ट राजभरों के लिए पटैत उपनाम कहे गये है,
5 ,  "This race, variously known by the terms Rajbhar,Bharat, Bharpatwa and Bhar..........
 -HinduTribes and Castes,Vol, 1,Page 358
-By M, A, Sherring
6 ,  "Rajbhar,Rajjbhar, Rajwar  &  Bhar,"
-Dr.Babasaheb Ambedhar writing and speeches, Vol, 1, Appendix 9, page 199. Education Deportment, Govemment of Maharashtra 1990.
     राजभर, राज्जभर, राजवर और भर
7, अन्तिम जनगणना,भरो को, भारद्धाज, कनौजिया (जाति आधारित रिपोर्ट 1931 के अनुसार कनौजिया भी भर थे कितुं बाद मे यह नाम धोबीयो ने अपना लिया
भर / राजभर साम्राज्य पुस्तक के पृष्ठ 276 देखे) और राजभर कि मुख्य उपजाति से संबन्धित बताती है,
8,  "  1972, और वरिजनल पब्लिकसेयर और 1988, पटउदी हाऊस दरायगंज दिल्ली -6
मे सबसे पहले इनका उल्लेख टालमी, वाल्यूम Vll, खण्ड  2 , पृष्ट 20 मे पाया जाता है,जहाॅ
इन्हे बार्रहाई या बढ़ई कहा जाता है,
9,  कम से कम मै जानता है कि आर्यो द्धारा देश कै मूल जातियों का  'बर् र' कहकर उपहास किया गया है और उनका उपनाम बर्बर या बारबौरियन(जंगली,देहाली,गॅवार,असभ्य, अशिष्ट) दिया गया है, जिसमे  से हम इस निष्कर्ष पर पहुॅच सकते हैं कि कोई भी शब्द जो बरीड से बना हो, निश्चित रूप से र  स्वदेशी है,
10,  साधारणतया शब्द विन्यास   "भर"   नाम से है,   "भर्र" उच्चारण मे अधिक उपयुक्त जान पढ़ता है.
 11,  भर  - कृषिकार्यो तथा मजदूरों कि अनार्य जाति.
 12,   - वही  ,  पृष्ट 353
       राजभर -  भरों की उपजाति
 13,    राज या राय - राजा, एक राजा.यह शब्द कुछ जमींदार वर्ग की जातियों की पदवी दर्शाता है, जैसे की राजगोंड़, राजकोरकू, राजखोड़ तथा राजभर
 14,  -  वही, पृष्ट 401 ,
राजभर - (एक भूस्वामी भर), राज्जहर के लिए एक ही अर्थ का शब्द
 15,   -  वही, पृष्ट 349
  भरिया - (भर जाति से), एक जाति  ;......
 16,    भारशिव - भर का परिनिष्ठित संस्कृत नाम भारशिव है, भारशिव वस्तुतः एक जाति नही ; बल्कि उपाधि थी. -  कुवेर टाइम्स लखनऊ. 26 जुलाई 1997
 17,  सभी मे सबसे शक्तिशाली, आजमगढ़ के भर अपनी बिरादरी के अन्दर विवाह संबन्ध स्थापित न करके दो भागों - पटैत तथा खुटैत मे विभक्त हो गये, लेकिन वे परिवार जो सूअर पालन नही करते थे उनसे जो सूअर - पालन करते थे, विवाह - सम्बंध स्थापित नही करते हैं, इसलिए एक ही बिरादरी में विवाह सम्बंध स्थापित करने वाले  भी अब एक ही नाम से संबन्ध नही रखते हैं जो दो अन्तर्विवाहीय भाग हो गये,
               अनेकानेक उपनामों से भर जाति की वास्तविक पहचान सनै - सनै विलुप्त होती चली जा रही है, राजपुत युग मे भर जाति की टुटन  अधिक बढ़ गयी, अनेक भर सरदार राजपूत कहलाने लगे, बीहड़ इलाकों के भर लोग उसी नाम से बने रहे, परशुराम ने प्राचीन क्षत्रियों का विनास कर दिया, आज के अनेक राजपूत भर जाति से रूपान्तरित होकर बने है,यदि राजपूतों के अनेक नृवंशो का अध्ययन किया जाय तो उनकी अधिक तर मूल उत्पत्ती भरों से ही संबंध जोड़ती है, भर जाति का कोई गोत्र नही है क्योंकि यह यहाॅ की मूल निवासी जाति हैं, प्राचीन प्रथा थी कि दास लोग अपने स्वामी का गोत्रादि भक्तिवस धारण  कर लेते थे, तुलसीदास ने कवितावली,रामायण -  उत्तरकांड में इसे इस प्रकार लिखा हैं,  "अति ही अयाने उपखाने नहिं बूझै लोग,साहेब के गोत्र होते हैं,  गुलाम को. " विष्णु रहस्य का वचन है -
                  आर्ष गोत्रंतु विप्राणां तदन्येषा गुरोरिव साखाभेदादगरोमेद्राद गोपीदीनांतु, सर्वशः.
अर्थ -   "ब्राम्हणों का अर्थ गोत्र  होता है और  क्षत्रियादि दूसरे वर्णो का गोत्र साखा और गुरू के भेद गुरू का गोत्र  होता है,  " ऋषिओ के नाम पर  गोत्र खोजकर हम  अपने वंश को गाली नही दे सकते

बुधवार, 15 जून 2016

भारतीय संविधान मे भर जाती



प्राचीन भारतीय धार्मिक ग्रंथो मे अनेक प्रकार की अछूत(शूद्र) जातियो का वर्णन मिलता है है। परंतु अंग्रेज़ सरकार ने 1935 ईस्वी मे इन जातियो का विस्तृत सर्वेक्षण करवाया और सर्वेक्षण मे पूरे देश को शूरद्रो के आधार पर नौ भागो मे बाँटा ईस सर्वेक्षण की रिपोर्ट को भारत सरकार ने कानून का रूप दे दिया जिसे “गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट 1935” के नाम से जाना जाता है सर्वेक्षण की सूची निम्नलिखित प्रकार है –
1 पार्ट        I –    मद्रास
2. पार्ट II –   बम्बई
3. पार्ट III –   बंगाल, इसमे राजवर (Rajwar)नामक जाती भी रखी गयी है
4. पार्ट IV –  संयुक्त प्रांत
5. पार्ट V -   पंजाब
6. पार्ट VI-   बिहार- इसमे भी राजवर जाती राखी गयी.
7. पार्ट VII-   मध्यप्रांत और बेरार, इसमे राज्जहर जाती भी राखी गयी
8. पार्ट VIII – असम
9. पार्ट IX -  उड़ीसा

उपर्युक्त सूची मे सब 429 जातियो का समावेश किया गया। सर्वेक्षण मे यह भी ज्ञात हुआ है कि –
राजभर  - Rajbhar
राज्जहर – rajjhar
राजवर – Rajwar
भर – भर
एक जाती के नाम है जो वीभिन्न रूपो मे प्रयोग किए जाते है, उत्तरप्रदेश, बिहार उड़ीसा, बंगाल, मध्यप्रदेश और बेरार मे राजभरों कि उपस्थिती बताई गयी जिनकी जनसंख्या सर्वेक्षण के अनुसार 6,30,708थी। 1931 ईस्वी कि जनगणना रिपोर्ट के अनुसार यह गणना ठीक बैठती है। और इसमे भरो कि सम्पूर्ण जनसंख्या 5,27,174 बताई गयी है।
स्वतन्त्रता  प्राप्ति के पहले सूची बद्ध जातियो को “दलित जातियो” (Depressed classes) कहते थे। स्वतन्त्रता मिलने के बाद इन जातियो को मुख्यता तीन भागो मे बाँटा गया।
1.   अनुसूचित जातिया(Schedule Castes) – अछूत जातिया
2.   अनुसूचित जंजतिया (Schedule Tribes) – बनवासी जातिया जो अछूत नही मानी गयी।
3.   पिछड़ी जातिया (Backward Caste)- अछूत नही,पर सामाजिक दृष्टि से पिछड़े लोग।
1950 ईस्वी मे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के अनुसार राष्ट्रपति ने अछूत  या दलित जातियो को दो भागो मे विभक्त कर अध्यादेश जारी किया, जो भाग ए और बी के नाम से जाना गया।
1.   भाग –ए संविधान (अनुसूचित जाती) आदेश 1959
2.   भाग- बी  संविधान (अनुसूचित जनजाति )आदेश 1950
1951 मे उपर्युक्त आदेशो मे संशोधन भी किया ज्ञ जिसे सी भाक के नाम से जाना जाता है –
1.   भाग – सी  संविधान (अनुसूचित जाती) (भाग सी ) आदेश 1951
2.   भाग – सी  संविधान (अनुसूचित जनजाति ) (भाग सी ) आदेश 1951
संसद मे कुछ जातियो को उक्त सूची मे रखने तथा कुछ को निकालने का भी प्रस्ताव रखा गया। इन प्रस्तावो के अंतर्गत 1950 ईस्वी कि उक्त सूची मे भी संशोधन किया गया। इस अध्यादेश को “अनुसूचित जाती और अनुसूचित जनजाति सूची (परिवर्तन) आदेश 1956” के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार समय-समय पर सूची मे संशोधन किया गया।
1956 ईस्वी के संशोधन मे उत्तर प्रदेश के कुछ राजभर नेता राजभर जाती को अनुसूचित जाती या अनुसूचित जनजाति कि सूची मे रखने का विरोध करने लगे। इन नेताओ का कहना था कि राजभर जाती क्षत्रिय है। अतः इसे आरक्षण कि आवश्यकता नहीं है।
अतः राजभर जाती को उत्तर प्रदेश मे 1981 मे विमुक्ति जाती कि श्रेणी मे रख दिया गया। उत्तर प्रदेश शासनादेश संख्या 899 (ए)26,700(5) दिनांक 12 मई 1981 को यह आदेश जारी कर दिया गया।
शब्द ज्ञान कोश के अनुसार भर जाती को निम्नलिखित प्रकार दर्शाया गया है –
भर – Bhar (N.M.) A sub-caste amongst Hindus, traditionally deemed as untouchable.
वर्तमान भारतीय संविधान मे भर / राजभर जाती की सूची :_
भारत के विभिन्न प्रदेशों मे भर / राजभर जाती के लोग पाये जाते है। पर इस जाती की जनसंख्या का घनत्व पुरवांचलों के जिलो मे अधिक है। घोर गरीबी,अशिक्षा, एवं अंधविश्वासों के चंगुल मे फँसकर यह जाती राष्ट्र के विकास की मुख्यधारा से अभी तक नही जुड़ पायी है। इस जाती के समग्र विकास के लिए भारत सरकार से समय-समय पर सरकारी नौकरियों मे आरक्षण की मांग की जाती रही है। सरकारी दस्तावेजो के अनुसार भर/ राजभर जाती को अनुसूचित जनजाति मे सामिल करने का सुझाव भारत सरकार के पास भेजा है पर इस पर अभी तक संसंद मे बहस नही हो सकी है।
10 सितंबर 1993 ईस्वी को मण्डल आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर समाज कल्याण मंत्रालय ,भारत सरकार ने केंद्र से जो सूची अन्य पिछड़े वर्ग की जारी की उसके अनुसार भर/राजभर जाती को भी आरक्षण की सुविधा दी गयी है।
इन्दिरा साहनी और अन्य विरुद्ध भारत संघ और अन्य के केस न। 930(1990) मे उच्चतम न्यायालय ने 16 नवम्बर 1992 ईस्वी को 27% सरकारी नौकरियों मे रिक्त पदो के लिए अन्य पिछड़े वर्ग को जो आरक्षण देने का निर्णय दिया उसी के आधार पर भारत सरकार ने केंद्र और राज्यो की एक कामन (उभयनिष्ट) सूची जारी की। सूची जारीकरण संख्याO.M. No। 36012/22/93EXTT(SCT) ओएफ़ 8th sept. 1993 के अनुसार।
उक्त सूची से ज्ञात होता है की बिहार प्रांत मे भर और राजभर को दो जाती मानकर सरकारी नौकरियों मे आरक्षण का प्रावधान किया गया। परन्तु उत्तर प्रदेश मे केवल भर जाती के नाम से आरक्षण दिया गया था। बिहार की सूची तथा केंद्र सरकार की इस प्रांत के लिए जारी सूची पूर्ण रूप से अशुद्ध है. इस सूची का दुष्प्रभाव इस समाज पर भविष्य  मे पड़ सकता है। क्योकि कालांतर मे इस आशय का बड़ा बवाल खड़ा हो सकता है की भर और राजभर बिहार प्रांत मे दो अलग-अलग जतिया है। क्योकि सरकारी गज़ट इसकी संपुष्टि करता है। यह आपत्ति जनक सूची अंग्रेज़ सरकार ने नहीं , भारत सरकार ने बनाई है। एक ही जाती को दो फांखों मे बांटकर भारत सरकार ने इस जाती के साथ घोर अन्याय किया है। एसा अन्याय तो अंग्रेज़ सरकार भी कर पायी थी।
इस जाती के विषय मे सूची तैयार करते सामी सरकारी अधिकारियों या आयोग के सर्वेक्षण कर्ताओ ने अशुद्ध  आकड़े एकत्रित कर भर और राजभर को दो खानो मे विभक्त कर दिया है। अंग्रेज़ो ने बांटो और राज करो  का जो सूत्र अपनाया था वही सूत्र गेहुओ की सरकार ने इस जाती के विषय मे अपनाया। इस जाती के राजनेता, समाज सुधारक एवं बुद्धिजीवियो ने गहरी नींद ले रखी है। जब वे गहननिद्रा से जगेंगे तब तक समय दूर चला जाएगा। आवश्यकता तो इस बात की है की भर और राजभर को समान जाती मानकर तीव्र आंदोलन छेड़ा जाय ताकि सरकार की बांटो और राज करो की नीति सफल न होने पाये। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भर जाती के विभक्तिकरण का यह क्रूर अन्याय असहनीय है। भर, राजभर लोग आपस मे सादी - विवाह करते है, रोटी-बोटी का नाता है उनमे प्रमपराए, रीति रिवाज, रहन-सहन इत्यादि सभी समान व एक है। फिर भी सरकारी गज़ट इस जाती को दो मानता है, विभाजन पैदा करता है। इनमे भविष्य  मे लिखा जाने वाला इतिहास इस विभाजन को कभी स्वीकार नही करेगा और न ही इस जाती के लोग इसे अंगीकार ही करेंगे। अज्ञानता बस अभी इस विषय पर कोई आंदोलन नहीं छेड़ा जा सका है। पर वह दिन दूर नही जब इस बिभाजन पर तीव्र आंदोलन चल पड़ेगा। भर राजभर एक ही जाती के समानार्थी पुकारे जाने वाले शब्द है। इनमे विभाजन सर्वथा अमान्य है। उत्तर प्रदेश सरकार ने एक अदध्यादेश जारी कर के भर और राजभर को समानर्थी मान लिया है।  

UTTAR PRADESH SHASAN (Backward Class Welfare Section-1)
In pursuance of the provisions of clause(3) of articls 948 the constitution. The governor is pleased to order the publication of the following English translation of notification no. 1259/64-1-97-70/96 dated 15 september 1997.
                              NOTIFICATION
No. 1259/64-1-97-70/96 Dated lucknow: 15 september1997
In exercise of the powers under section 13 of the Uttar Pradesh public services (Reservation for scheduled castes, scheduled Tribes and other backward classes) act. Make the following amendment in schedule 1 of the aforesaid act.   



AMENDMENT
In schedule 1 to the aforsaid ac- (a) for the entries set out in column 1 below, the entries as set out against each in column 2 shall be substituted, namely:
Column – 1
1     AHIR
4     KAHAR
15    GARORIA
24    TOLI, SAMANI, ROGANGAR
25    DARJI, IDRISI
31    BANJARA
37    BHAR
38    BHURJI, BHARBHUNJUA, BHOOJ, KANDU

Column – 2

1     AHIR, YADAV,GWALA, YADUVANSHIYA
4     KAHAR,KASHYAP
15    GARORIA,PAAL AND VAGHOL
24    TOLI, SAMANI, ROGANGAR, SAHU
25    DARJI, IDRISI, KAKUTSTHA
31    BANJARA, RANKI, MUKORI AND MUKORANI
37    BHAR, RAJBHAR
38    BHURJI, BHARBHUNJA, BHOOJ, KANDU, KASHAUDHAN

(b) after entry 57, the following entias shall be inserted, namely:-
“58 – Dhobi (Who Are Not Included In the Category Of Scheduled Caste/Scheduled Tribes)

मंगलवार, 14 जून 2016

राजभर जाति भरत भरतवंशी, (चंद्रवंशी ) क्षत्रिय है
श्री बलदेव सिंह चंदेल (राजभर)मुकाम राजेपुर ,पोस्टराजेसुल्तानपुर जिला फ़ैजाबाद नेराजभर जाति का इतिहास नामकपुस्तक लिखी थी जो वर्ष 1948 मेंश्री दूधनाथ पुस्तकालय नंबर 63सूता पट्टी बड़ा बाजार कलकत्ता सेछपी थी में राजभर जाति को भरतवंशी ,सूर्यवंशी (चंद्रवंशी ) क्षत्रियकहा है //उन्होंने लिखा है --(विश्वामित्र काकथन )-
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भरत होयँगे हस्तिनापुर में वीर धीरबलधारी / चक्रवर्ती राजा होएंगे भारत नाम करेजगजारी //इनके पितु दुष्यंत कहावें ,शकुन्तलामहतारी /राजा भरत से राजभर जन्में उनकीकथा रहे विस्तारी //

सोमवार, 13 जून 2016

भारत की मूल नागभारशिव जाति

क्या भरत जाति ही नाग जाति है ? यह प्रश्न अत्यधिक जटिल और उलझन से परिपूर्ण है। इसकी कोई स्पष्ट व्याख्या करना इतिहासकारो के लिए चुनौतीपूर्ण है। अंग्रेज़ विद्वान स्टैनले राइस  अपने ग्रंथ “हिन्दू कस्टम एण्ड देयर ओरिजिन्स” ( Hindu costums and their origins) मे कहते है की द्रविड़ जाति के लोगो ने भारत पर आक्रमण  करके यहा के मूल निवासियों को अछूत बनाया और अपनी राजसत्ता कायम की । तदुपरान्त आर्यों ने द्रविड़ों पर आक्रमण करके उन्हे  शूद्र बनाया और देश पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित किया। इस प्रकार की व्याख्या इतिहास को एक यांत्रिक सिधान्त से साधारणतया जोड़ देती है। आर्य ग्रंथो मे आर्य, द्रविड़ , दास था नागो का उल्लेख बार बार आया है। ये दस और नाग कौन थे? यह प्रश्न भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है. आर्य , द्रविड़ , दास और नाग अलग-अलग जातियो या वंशो के नाम है या एक ही वंश के अलग-अलग लोगो के नाम है? साधारण रूप मे ऐसी मान्यता है की ये अलग-अलग वंशो या जातियो के नाम है। यहा हम दसो और नागो के विषय मे अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहते है।  इसके पहले आर्य और द्रविड़ के विषय मे इतना ही कहा जा सकता है कि आर्यों का कबीला स्वयं अपने मे ही अंतर वैवाहिक  विवाह वाला पघती वाला नही था। वे अकेले “होमोजेनस” (homogeneous) नहीं थे। बल्कि उनकी दो मुख्य धाराये थी। इसे ऋग्वेदिक आर्य था अथर्ववेद  आर्य मे विभाजित किया जा सकता है। ऋग्वेदिक आर्य “यज्ञ” मे विश्वास रखते थे। उनके दर्शन परस्पर भिन्न थे। ऋग्वैदिक  आर्य मनु को अपनी वंशावली व जन्मदाता मानते थे। द्रविड़ शिव या शिवलिंग के उपासक थे तथा उन्हे अपने वंश का आदि देव मानते थे।
भारत के नाग और दास, नाग देवता को अपने वंश का जन्मदाता मानते थे। वैदिक साहित्य मे दस और नाग को एक ही शब्दावली मे निरूपित किया गया है पर कही-कही भ्रांतियों से नकारा नही जा सकता है। दस शब्द इंडोईर्नियन शब्द “दहक” से संस्कृत रूप बनाया गया है, यह दहक शब्द नागो के एक शक्तिशाली राजा दहक को दस या नाग का पर्यायवाची  शब्द बनया गया। ऊपर हम देख चुके कि दिवोदास और उसके पुत्र सुदास को वैदिक ग्रंथो मे भरत वंश का शासक  कहा  गया है। क्योकि दोनों भरत वंश के प्रबलतम शासको मे से थे और दोनों के नामों मे “दास” लगा हुआ है। अत: निश्चित ही वे दास या नाग वंश से संबन्धित थे।उक्त तथ्य कि संपुषिट्टी डाक्टर भीमराव अंबेडकर कि इन पंक्तियो से कि जा सकती है –
“A Greater Mistake Lies In Differentiating The Dasas From Nagas. The Dasas Are The Same As Nagas; Dasas Is Merely Another Name For Nagas. It Is Not Difficult To Understand How The Nagas Came To Be Called Dasas In The Vadic Literature Dasas Is Sanskritized From Of The Indo-Iranian Word Dahaka. Dahaka Was The Name Of The King Of The Nagas. Consequently The Aryan Called The Nagas After The Name Of Their King Dahaka Which In Its Sanskrit From Became Dasa A Generic Name Applied to All The Nagas.”
(dr. Babasaheb ambedkar writings and speeches vol.7, p. 292)
प्रत्येक नागो के लिए दास उनकी प्रजाति का नाम बन  गया। नाग –वंश का वर्णन वेदो मे और पुराणो मे भरा पड़ा है (देखे मेरी पुस्तक – नागभार शिव का इतिहास – एम बी राजभर)। नागो के साथ शिव शब्द कैसे जुड़ गया इसका भी एक लंबा इतिहास है। द्रविड़ जाति के लोगो मे शिव की पूजा होती थी। भरत वंश के लोगो मे शिव की आराधना का प्रचलन उसी प्रकार हुआ जैसे आर्यों ने शिव को या शिवलिंग को पूजना प्रारम्भ  किया। शिवलिंग को धरण करने के कारण नाग, कालान्तर मे भारशिव कहलाने लगे। यही भारशिव वंश के लोग भर नाम से भी प्रससिद्ध हुये।
भर शब्द की व्याख्या  भारशिव के अर्थ मे करते हुये डाक्टर काशीप्रसाद जायसवाल कहते है की विंध्याचल क्षेत्र को भरहुत, भरदेवल,नागोड और नागदेय भरो को भारशिव सिद्ध करने का अच्छा प्रमाण है। मिर्जापुर, इलाहाबाद तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्र  भरो के प्रदेश रह चुके है –
“The local tradition at kantit is that long before the “Gaharwars” the fort belonged originally to the Bhar kings. The Bhar king here are evidently a corruption of the bharshiva kings and not the bhar tribe of whose rule in Mirzapur- vindhyachal there is no evidence. The same tradition is repeated the bhardeul (A.S.R. vol. XXI, plates 3 and 4, description at page 4-7) once a magnificent shiva’s temples coverd all ovr the figures of naga(serpent) kings, build near Maughat in the vindhya hills, 25 miled to W.S.W. of Allahabad. It is in the region of bharhut (-bharbhukti) Bhara province. (I heard the name pronounces as bharhut and bharhut and Bharhut. Its original will be Bharbhukti, the bharprovince). We have no historical district of Mirzapur, Allahabad and the neighbourhood. The tradition stands explained if it is taken to refer to the Bharshiva dynasty. The name bhardeul which is by kittoe in whose time it was called the “temple of karkot Nag” evidently support the view that the Bhar here stands for Bharshiva. The place names ‘Nagaudh’ and ‘Nagadiya’ mark the occupation by the Naga kings of bundlkhand, and so does bharhut and also probably Bhardeul.” (HISTORY OF INDIA, 150 A.D.- 350 A.D. BY K.P. JAYASWAL P. 29-30)
इस तरह भर का परिनिष्टिथ संस्कृत नाम भारशिव है। इस युग को कुषाण-युग कहा जाता है, जब भर राय बरेली के शासक थे, (790-990 A.D.) भर राजसत्ता स्थापित करने के महत्वाकांछि थे। भारशिव वंस्तुत: एक जाति का नाम नहीं बल्कि उनकी उपाधि थी। भारशिव विंध्यशक्ति की जन एकता का प्रतीक था। जिसका वर्णन इसी पुस्तक मे आगे किया जाएगा। तीसरी शताब्दी के पूर्वार्ध से प्रारम्भ होता हुआ उत्तर भारत तथा मध्यभारत पर नागवंशियों का राज्य था। शुरू मे नागवंश यहा मथुरा और ग्वालियर मे ही था। पर कालांतर मे शनै : शनै : इसका विस्तार होकर विदर्भ  , बुंदेलखंड तक फैलता चला गया । एसी मान्यता है की भर लोग मुख्यता दो कुलो मे बटे हुये थे। एक “शिवभर” तथा दूसरा “राजभर”। शिवभरों  का कार्य राजसत्ता से दूर रह कर हाथ  मे त्रिशूल लेकर विचरण करना था जबकि राजभर का कार्य राजसत्ता स्थापित  कर शासन चलाना था। शिवभर तथा राजभर दोनों ने मिलकर और मुर्घभिषीकित्त होकर विंध्यशक्ति का मजबूत संगठन बनाया। राजभर प्रवरसेन को उसका नेता चुना गया (284 ई.)। गंगा के पवित्र जल की सौगंध खाकर दोनों एक हुये और कहलाए “भारशिव”। भारशीवो का गौरवशाली इतिहास वीरान खंडहर, टीले, एवम मंदिर-स्तूप  उनके पराक्रमी अतीत को आज भी जीवित रखे हुये है।  शिव-पार्वती की उपासना उनके मंदिरो का प्रबल उदाहरण है। गौतम बुद्ध काल मे भरत वंश के शासक सतनिक परंतप वत्स देश के राजा हुये और यमुना नदी के दक्षिण तरफ इलाहाबाद से तीस मील दूर कौशांबी (वर्तमान कोसम) मे अपनी राजधानी स्थापित किया। परंतप के उपरांत उसका पुत्र उदयन कौशांबी का शासक हुआ। मगध के नागवंशी सम्राट दर्शक की बहन पदमवाती से उसका विवाह हुआ (बिंबिसार की पुत्री )। नागदास जो की नव नागवंशी शासक उदायी का पुत्र था, सुदास तथा दिवोदास की भांति अपने नाम के पीछे दास सब्ध जोड़ लिया था और भरत वंशी  उदयन से उसके परस्पर वैवाहिक संबंध थे। उदयन ने अनेक अवसरो पर मगध सम्राट बिंबिसार से युद्ध मंत्रर्णा की थी, और मगध तथा वत्स के राजनैतिक संबंध एवम वैवाहिक संबंध इस तथ्य को पुस्ट करते है की भरत वंश नागवंश की ही दूसरा स्वरूप है। कथासारितसागर तथा प्रियदर्शिका ग्रंथ के अनुसार वत्सराज उदयन तथा मगधराज नागदास (नंदिवर्धन 265-225 B.C.) मे भी गहरी मित्रता थी। एच.के. देव अपने ग्रंथ “उदयन वत्सराज” (कलकत्ता 1919 ई.) मे इस आशय की पुष्टि करते है की भरत वंश तथा नागवंश परस्पर जुड़े हुये है। भरहुत के निर्माण मे बिंबिसार के पुत्र अजातशत्रु का विशेष योगदान रहा है। इसी कारण इतिहासकर भरहुत को भर जाति की अमूल्य धरोहर मानते है।
भारशिव नागवंश से भर शब्द की व्युत्पत्ति की कालगाड़ना तीसरी या चौथी शताब्दी से निरूपित होती है। भवनाग ही भारशिव वंश का प्रबल शासक माना जाता है। पर इस अवधारणा मे उस समय लचिलापन दिखाई देता है जब वैदिक कालीन भरत वंश या नागवंश से भर या बर या बर्र्हई शब्द की व्युत्पत्ति को हम निरूपित करते है। टालमी जिसने सर्वप्रथम 150 ई मे विश्व का मानचित्र प्रस्तुत किया था। तथा अपने भारत भ्रमण के समय उसने भारत का जो मानचित्र बनया , जिसे “इंडियन एंटीक्वयरी, वाल्यूम XIII(1884)मे” “टालमी मैप आफ इंडिया” शीर्षक से प्रकाशित किया गया है, उसमे भरहुत को भारदावती से जोड़ा गया है , और जनरल कनिंघम ने आर्क्योलोजीकल सर्वे आफ इंडिया मे (वाल्यूम IX, pp. 2-4) मे इसे पुष्ट करते हुये कहा है की भरहुत मगध के नागवंशी शासको का बनया हुआ है और इसे भर जय के लोगो की धरोहर  कहा जा सकता है। इस धारणा से भर शब्द को और पीछे पाचवी या छठवी शताब्दी ईसा पूर्व मे उल्लेख होने का प्रमाण मिल जाता है। इस प्रकार नागवंश या भरतवंश से आया हुआ भर शब्द, भारशिव वंश से आए हुये शब्द से लगभग नौ सौ वर्ष पुराना है अर्थार्थ  भर जाती की उत्पत्ति आज से लगभग ढाई हजार  वर्ष पहले इस तथ्य से निर्धारित होती है।
भरत वंश का वर्णन वैदिक का मे अनेक बार आया है। हमे यह भी पता है की ऋग्वेद का रचनाकाल 2500 ई . पू. है। इस प्रकार आज से लगभग साढ़े चार हजार वर्ष पहले भरत जाती का प्रारंभिक उल्लेख मिलता है, और उस काल की मूल अन्य जातियो को आर्यों ने बरबर कह कर अपमानित किया है जिसे अंग्रेज़ इतिहासकार भर से भी जोड़ते है।
नागो ने भारत के जिस राजनैतिक चरित्र को पेश किया वह आज मील का पत्थर सिद्ध होता है . अंबेडकर कहते है-
“ The political history of india begins with the rise of a non-Aryan people called Nagas, who were the powerful people, whom the Aryan were unable to conquer, with whom the Aaryan had to make place, and whom the Aryans were compelled to recognize as their equal. Whatever fram and glory india achieved in ancient times in the political field, the credit for it goes intirely  to the Non-Aryan Nagas. It is they who made india great and glorious in the annals of the world.
The first landmarks in Indians political history is the imergence of the kingdom of the magalha in Bihar in the year 642 B.C. The founder of this kingdom of Magadha is known by the name of sisunaga and belonged to the Non-Aryan race of Nagas.” (DR. AMBEDKAR WRITINGS AND SPEECHES VOL 3, PAGE 267)
“भारत के राजनैतिक इतिहास का प्रारम्भ अनार्यो के उस प्रभावी उभरते हुये नागो को जाता है जो शक्तिशाली लोग थे, जिनको आर्य विजित करने मे असमर्थ थे, जिनके मेल- मिलाप द्वारा ही आर्य यहा निवास कर पाये, और इन नाग लोगो को आर्यों ने अपने समकक्ष स्थापित किया भारत ने प्राचीन समय मे जो भी विश्व मे प्रसिद्धि और गौरव अपने राजनैतिक क्षेत्र मे पाया उसका सम्पूर्ण श्रेय अनार्य नागो को जाता है। ये वही लोग है, जिनहोने विश्व के इतिहासों (annals) मे भारत की महानता और गरिमा को बढ़ाया ।
भारत के राजनैतिक इतिहास के मील का पत्थर सर्वप्रथम 642 ई .पू. के वर्ष मे बिहार के मगध राज्य मे उभरकर सामने आता है , मगध के इस राज्य की स्थापना अनार्य जाती के नागवंशी शिशुनाग ने की.”
राजपूत नृवंश की अनेक जातीय क्षत्रिय कहलाती है, ये क्षत्रिय जातिया आर्यों की  क्षत्रिय जातीया नही है। आर्यों की क्षत्रिय जातियो को परशुराम ने समूल नष्ट कर दिया। अत: राजसत्ता का दायित्व  नागवंशी या भरतवंशी जातियो ने निभाया। इसी कारण भर जाती को क्षत्रिय जाती भी कहा  जाता है। राजपूत युग के निर्माताओ मे भर जाती का प्रमुख स्थान है। शकों था हूणों को पराजित करके उन्होने  नवीन क्षत्रिय जातियो मे विलीन कर लिया गया।
इस कथन को की दास ही भरत जाति है और भरत ही नाग जाती है तथा नाग ही द्रविड़ जाती है, डाक्टर अंबेडकर ने इस प्रकार कहा है-
“Thus the Dasa are the same as the Nagas and Nagasare the same as the Dravidians”
भरत जाति के बहुत से लोग कालांतर मे आर्यों से पराजित होने के उपरांत कुरु वंश मे सामील हो गए।
(“It appears that the Bharatas and Purus were merged into the kurus”) – {see—History Of Ancient India p-42 – R.S. TRIPATHI}
भर शब्द भरत जाति से बना है, इस वाक्य को इस प्रकार कहना की भर शब्द भारशिव नागो से बना है, कोई एतिहासिक अंतर नही जान पड़ता है। डाक्टर काशी प्रसाद जायसवाल ने भारतीय इतिहास मे 115 A.D.- 350 A.D. का काल  जोड़कर भारशिव काल कहा है और इस तरह इतिहास मे एक नया अध्याय जोड़ दिया है।

रविवार, 12 जून 2016

राजभरो की शान राजा सुहेलदेव राजभर जी
ग्यारवी सदी के प्रारंभिक काल मे भारत मे एक घटना घटी जिसके नायक श्रावस्ती सम्राट वीर सुहलदेव राजभर थे ! राष्ट्रवादियों पर लिखा हुआ कोई भी साहित्य तब तक पूर्ण नहीं कहलाएगा जब तक उसमे राष्ट्रवीर श्रावस्ती सम्राट वीर सुहलदेव राजभर की वीर गाथा शामिल न हो ! कहानियों के अनुसार वह सुहलदेव, सकर्देव, सुहिर्दाध्वाज राय, सुहृद देव, सुह्रिदिल, सुसज, शहर्देव, सहर्देव, सुहाह्ल्देव, सुहिल्देव और सुहेलदेव जैसे कई नामों से जाने जाते है !

श्रावस्ती सम्राट वीर सुहलदेव राजभर का जन्म बसंत पंचमी सन् १००९ ई. मे हुआ था ! इनके पिता का नाम बिहारिमल एवं माता का नाम जयलक्ष्मी था ! सुहलदेव राजभर के तीन भाई और एक बहन थी बिहारिमल के संतानों का विवरण इस प्रकार है ! १. सुहलदेव २. रुद्र्मल ३. बागमल ४. सहारमल या भूराय्देव तथा पुत्री अंबे देवी ! सुहलदेवराजभर की शिक्षा-दीक्षा योग्य गुरुजनों के बिच संपन्न हुई ! अपने पिता बिहारिमल एवं राज्य के योग्य युद्ध कौशल विज्ञो की देखरेख मे सुहलदेवराजभर ने युद्ध कौशल, घुड़सवारी, आदि की शिक्षा ली ! सुहलदेव राजभर की बहुमुखी प्रतिभा एवं लोकप्रियता को देख कर मात्र १८ वर्ष की आयु मे सन् १०२७ ई. को राज तिलक कर दिया गया और राजकाज मे सहयोग के लिए योग्य अमात्य तथा राज्य की सुरक्षा के लिए योग्य सेनापति नियुक्त कर दिया गया !

सुहलदेव राजभर मे राष्ट्र भक्ति का जज्बा कूट कूट कर भरा था ! इसलिए राष्ट्र मे प्रचलित भारतीय धर्म, समाज, सभ्यता एवं संस्कृति की रक्षा को अपना परम कर्तव्य माना ! राष्ट्री की अस्मिता से सुहलदेव ने कभी समझौता नहीं किया ! इनसब के वावजूद सुहलदेव ९०० वर्षो तक इतिहास के पन्नो मे तब कर रह गए ! १९ वी. शादी के अंतिम चरण मे अंग्रेज इतिहासकारों ने जब सुहलदेव पर कलम चलाई तब उसका महत्व भारतीय जानो को समझ मे आया ! महाभारत के बाद ये दूसरा उदहारण है जब राष्ट्रवादी नायक सुहलदेव राजभर ने राष्ट्र की रक्षा के लिए २१ राजाओ को एकत्र किया और उनकी फ़ौज का नेतृत्व किया ! इस धर्मयुद्ध में राजा सुहेलदेव का साथ देने वाले राजाओं में प्रमुख थे रायब, रायसायब, अर्जुन, भग्गन, गंग, मकरन, शंकर, वीरबल, अजयपाल, श्रीपाल, हरकरन, हरपाल, हर, नरहर, भाखमर, रजुन्धारी, नरायन, दल्ला, नरसिंह, कल्यान आदि।

सुहलदेव का साम्राज्य उत्तर मे नेपाल से लेकर दक्षिण मे कौशाम्बी तक तथा पूर्व मे वैशाली से लेकर पश्चिम मे गढ़वाल तक फैला था ! भूराय्चा का सामंत सुहलदेव का छोटा भाई भुराय्देव था जिसने अपने नाम पर भूराय्चा दुर्ग इसका नाम रखा ! श्री देवकी प्रसाद अपनी पुस्तक राजा सुहलदेव राय मे लिखते है की भूराय्चा से भरराइच और भरराइच से बहराइच बन गया ! प्रो॰ के. एल. श्रीवास्तव के ग्रन्थ बहराइच जनपद का खोजपूर्ण इतिहास के पृष्ट ६१-६२ पर अंकित है - इस जिले की स्थानीय रीती रिवाजो मे सुहलदेव पाए जाते है !

इसप्रकार अधिकतर प्रख्यात विद्वानों ने अपने अध्यन के फलस्वरूप सम्राट सुहलदेव को भर का शासक माना गया है ! कशी प्रसाद जयसवाल ने भी अपनी पुस्तक "अंधकार युगीन भारत" मे भरो को भारशिव वंश का क्षत्रिय माना है ! अर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के वोलुम १ पेज ३२९ मे लिखा है की राजा सुहलदेव भर वंश के थे !