राजधानी श्रावस्ती
भर जाती के प्राचीन भर राजाओ, महाराजाओ मे खिरधर या खिराधर का नाम अत्यधिक प्रसिद्ध है। महाराजा खिरधर 275 ईस्वी मे श्रावस्ती के शासक थे। श्रावस्ती, अर्थात जहा सभी कुछ है (सब्बं अस्थि) बौद्ध काल की एक समृद्ध नगरी थी। सब्बं अस्थि से ही इसका नाम सावत्थी और तत्पश्चात श्रावस्ती हो गया। इस प्रकार का उल्लेख अनेक स्थानो पर मिलता है। पर यह उल्लेख नागवंश के राजाओ से इतना गुथा हुआ है की नागवंश या भारशिव नागवंश या भरवंश मे विभेद नही किया जा सकता। भारतीय इतिहास मे कुषाणों के पतन तथा गुप्त वंश के अभ्युदय के बीच का समय इतना जटिल है की लगभग सभी इतिहासकर क्रमागत समकाल न पा सकने के कारण इसे इतिहास का “अंधकार-युग”(dark Era) मान बैठे। भारतीय इतिहास का यह युग 143 ईस्वी से प्रारम्भ होकर 320 ईस्वी पर समाप्त होता है इस प्रकार लगभग पौने दो सौ वर्षो का इतिहास उलझाव भरा सिद्ध कर दिया गया। इसी उलझाव भरे युग मे महाराजा खिरधर का नाम प्रकाश मे आता है। दूर दूर के सौदागर श्रावस्ती के बाजारो मे आकर पूछते यहाँ क्या सामान है (कि भिंड अस्थि), तो उन्हे उत्तर मिलता सभी कुछ है (सब्बं अस्थि) । यह अचिरावती नदी (राप्ती) के किनारे पर बसी हुई थी।
अंधकार युग मे अनेक भारशिव नागवंश के राजाओ के नाम प्राप्त हुये है। (देखे नागभारशिव का इतिहास पृष्ट 92) भरशीवो ने इस युग मे मिर्जापुर, मथुरा, अंबाला, ग्वालियर तथा बुंदेलखंड के अतिरिक्त श्रावस्ती (अवध) पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। कुषाणो के पतन के कुछ एतिहासिक उद्धरण यहा देना उचित समझ रहा हु।
1. रामाशंकर त्रिपाठी के अनुसार कुषाणो के पतन के कारण अत्यधिक संख्या मे नागो तथा अन्य नृवंशो के उदय थे।
“the ourthrow of these kushan chieftains must have nowever been largely due to the rise, of the nagas and other native dynesties which prepared the way for the guptas for welding northern india eventually in to one mighty empire” (history of ancient india page 234)
2. उक्त तथ्य का और स्पष्टीकरण काशी प्रसाद जायसवाल ने किया है। उनका मानना है की उत्तर भारत मे इस युग मे नागों या भरशीवो ने एक बड़े भूभाग पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया।
“this was a period when the nagas or their bharshiva branch dominated a large part of northen india (journal of the bihar and Orissa research society, march-june 1933, pp 3F)
3. नागवंश के शासको का एक विस्तृत वर्णन करते हुए डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने कहा है की तीसरी शताब्दी के उत्तरार्ध तथा चौथी शताब्दी के पूर्वार्ध मे नागो के तीन समूह स्वतंत्र रूप से विदिशा, पदमावती, और मथुरा के शासक बन गए।
“then during the third and early part of 4th century A.D., northern india also was ruled by a number of naga kings is early proved by puranic as well as numismaric and epigraphic evidence. The independent groups of vidisa,campavali or padmavati and Mathura are distinctly mentioned in such a way as to leave little doubt of their importance” (dr. babasaheb ambedkar writing and speeches vol, 7 page 294)
4. डाक्टर ईश्वरी प्रसाद ने भी कुषाणो के पाटन का मुख्य कारण नागभारशीवो तथा अन्य स्थानीय वंशो का उदय बताया है।
“modern research has brought to light that the fall of the kushan empire was followed by the rise of several dynesties like abhiras and the naga bharsivas”( a new history of india page 61)
5. डाक्टर सी. सी. राव चौधरी ने कहा है की उत्तर भारत मे कुषाण-साम्राज्य चौथी शताब्दी मे नागो द्वारा पराजित होने पर समाप्त हो गया। ये नाग लोग उत्तरपथ के विभिन्न भागो पर समुद्रगुप्त की सेनाओ के विजय अभियान के पहले उनके ही द्वारा पराजित कर दिये गए।
Kushana kingdom of northern india disappeared in the 4th century a.d. having been conquered by the nagas. These nagas must have been ruling over different portions of uttarpatha till they were themselves swept away before the conquring arms of samudragputa”
उक्त लेखो का आधार मुख्यता हमारे विभिन्न पुराण ही है। जिसमे नागवंश के अनेक राजाओ का नाम भी गिनाया गया है। “इलाहाबाद स्तम्भ अभिलेख” मे भारशीवो का जो गंगाजल से अभिषिक्त करने का उल्लेख आया है उससे पौराणिक व्याखानों को बल इलता है । इन तथ्यो के अतिरिक्त सैमूअल बील ने चीनी यात्री फ़ाहियान के भ्रमण पर जो पुस्तक लिखी है (the travesl of fahian {fo-kwo-ki} by Samuel beal ) उसके अनुसार बताया गया है की फ़ाहियान भारत का भ्रमण 399 ईस्वी से प्रारम्भ किया और 414 ईस्वी मे वह यह यात्रा समाप्त की। इस दौरान वह मथुरा, समकास्य, कन्नोज, श्रावस्ती, कपिलवस्तु , कुशीनगर, वैशाली, पटलिपुत्र, काशी इत्यादि अनेक राजधानियों का दौरा क्या। फ़ाहियान 410 ईस्वी मे श्रावस्ती पहुचा। उसने श्रावस्ती को स्वातिपुरम लिखा है। अपने विवरण मे फ़ाहियान लिखता है की “एक राजा जिसका नाम खिरधर था, स्वातिपुरम पर 275 से 302 ईस्वी तक राज किया” (देखे gazetteer of the province of oudh vol I {1877} पृष्ट 109) जनरल आफ दी रायल एशियाटिक सोसायटी 1881 के पृष्ट 570-71 से पता चलता है की मगध पर 275-300 ईस्वी तक गुप्त नामक शासक जिसे श्री गुप्त के नाम से भी जाना जाता है, राज किया, गुप्त के बाद उसका पुत्र घटोत्कक्ष (300-319) के सिंहासन पर बैठा। (वैशाली सील मे श्री घटोत्कच गुप्तस्य लिखा गया है।) संभवतः गुप्त वंश का यह सम्राट ही भर राजा खिरधर को श्रावस्ती से राजच्युत किया था। क्योकि घटोत्कच का राजरोहण खिरधर के राज्यच्युत किया था। क्योकि घटोत्कच अपना राज्य विस्तार करने मे खिरधर को हराया होगा। दुर्भाग्यवश यहा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। घटोत्कक्ष के पुत्र चन्द्रगुप्त प्रथम (319-335 ईस्वी) द्वारा वैशाली के लिच्छीवियों के पराजित होने के बाद, चन्द्रगुप्त प्रथम ने साकेत को भी वहा के राजा को पराजित करके अपने राज्य मे विलय कर लिया। जाहीर है की साकेत की राजधानी श्रावस्ती थी। अतः इस युद्ध मे श्रावस्ती का राजा खिरधर ही पराजित हुआ होगा। अर्ली हिस्ट्री आफ इंडिया पृष्ट 295-96 मे बेनसेंटस्मिथ ने पुराण का एक श्लोक उढ़घृत किया है।
अनुगंग प्रायगच साकेत मगधास्ताथा।
एतान जनपदान सर्वान भोक्ष्यंते गुप्तवनशजा:।
परन्तु चन्द्रगुप्त प्रथम के राजरोहण (319 ईस्वी) तथा खिरधर के राज्यच्युत (302 ईस्वी) के समयकाल मे सत्रह वर्षो का अंतराल है।
अवध गजेटियर मे जोला बाहराइच का इतिहास प्रमुख से से दिया गया है। क्योकि इस जिले मे श्रावस्ती (सहेठ-महेठ) प्राचीन राजधानियों मे से एक थी। भर राजा खिरधर की भी यह राजधानी थी। राम ने अपने पुत्र लव को यहा का राजा बनाया इसलिए यह क्षेत्र रघुवंशियों के कब्जे मे था। (bhars of lucknow) शीर्षक मे अवध गजेटियर वाल्यूम II पृष्ट 353-55 पर दिये गए विवरण के अनुसार सुरजवंशियों के पश्चात भर अयोध्या मे सब जगह व्याप्त थे। राजा परीक्षित ने उन्हे अयोध्या की जागीर दी। महाभारत आदि पर्व के अनुसार शमीक मुनि के पुत्र श्रींगी ऋषि ने महाराजा परीक्षित को नागराजा तक्षक से इस प्रकार पराजित होने का उल्लेख किया है –
योसौ वृद्धस्य
तातस्य तथा कृच्छगतस्य च।
स्कन्धे मृत्मवास्त्राक्षीत्पत्रगं।।
तं पापमतिसंक्रुद्धस्तक्षक: पत्रगोत्रम:।
आशिविषतिग्मतेजा मदक्यवल्चोदित:।।
सप्तरात्रादितो नेता यमस्य सदनं प्रति ।
द्विजानामवन्तारं कुरुणामयशस्करम ।।
श्रावस्ती प्राचीन काल से नागभारशीवो के अधिकार मे रही है। इसके अस्तित्व पर प्रकाश डालते हुये हुये अवध गजेटियर मे जो विवरण दिया गया है उससे “अंधकार युग” मे भरशीवो का प्रकाश फैलता हुआ दिखाई देता है.-
“The gleam of light that the bhddhist pilgrim’s records therw upon the history of this part of the country completely fails us after the fifth century A.D. and for tour hundred years there is no clue beyond the merest tradition the state of the country or the races which ruled it. In common with rest of eastern oudh the district is said to have been under the dominion of the bhars during this period and every ruin with any claim to antiquity ascribed to these people. The name of bahraich itself finds another derivation from this race.” (the gazetteer of the N.W.P., of oudh vol I (1877) p. 110)
प्राचीन समय के भग्नोवशेषो का लगाव भरशीवो से गुथा हुआ है। बहराइच नाम की उत्पत्ति ही भारशिव भर वंश से हुई जो स्वतः “अंधकार युग” मे एक प्रकाश फैलाता है। महाराजा खिरधर भी इसी युग का एक प्रकाशमान शासक है। श्रावस्ती उस अंधकार युग की एक प्रकाशित राजधानी है। जो राप्ती नदी के एक किनारे पर बसी है। अनेक गावों के नामकरण भर जाती के दिये हुये है बहराइच जिले के उत्तर मे सहेठ-महेठ ही श्रावस्ती राजधानी थी।
“in hismpur pargana there are a number of wells, small ruined forts and old village sites the principal of which in purana, karnal, jarwal, mohri, bhakaura, sakanth, kasehri buzurg,hasna mulai, waira kazi and bhauli dih and of which according to local tradition, owe their existence to the bhars, which in the north of the large city forts descrived above sahet-mahet and charda, are also by the common folk belived to have had a like origin.” {(the gazetteer of the N.W.P., of oudh vol I (1877) p. 111}
अवध गजेटियर के उक्त विवरण मे शीर्षक “भर और भरो के भग्नावशेष”(“Bhars And Bhar Remains”) के माध्यम से उनके प्रमुख गांवो मे पूराइना, कर्नल, जरवल, मोहरी, भकौरा, संकथ, कसेहरी बुझुर्ग, हसनामूलई, बैरा काजी और भौली डीह का नाम गिनाया गया है। सहेट-महेट और चर्दा की उत्पत्ति भी भर शासको द्वारा कही गयी है। “अंधकार युग” पर प्रकाश डालने के उद्देश्य से अवध गजेटियर के पृष्ट 111 की कुछ और पंक्तिया देखी जा सकती है। जिसमे भारशीवो की उतपति के संबंध मे भी संभावना व्यक्त की गयी है जिसे गुप्त वंश के शासको ने पराजित किया था।
“whenever they were aborigins or the remnants of chattri races which remaided in this part after their suppression by the kings of the gupta dynesty and which as soon as that dynesty fell rose upon its ruins to an independent position with what approach severein power until in their turn they had to give way befor the advancing wave of rajputs from the west, can only as yet be matter of conjuncture.”
या तो वे भर लोग आदिवासी थे या शेष बचे हुये क्षत्रिय (परशुराम के क्षत्रियो के विनास से बचे हुये), जो इस भूभाग पर आबाद हो गए। गुप्त वंश के राजाओ द्वारा पराजित होने पर वे यही बस गए और जैसे ही अवसर मिलता वे स्वतंत्र हो जाते थे। इस प्रकार वे तब तक संघर्ष करते रहे जब तक पश्चिम मे राजपूतो का साम्राज्य स्थापित नहीं हो गया। अर्थात राजपूत-युग की स्थापना नहीं हो गयी। यह विषय रहस्यो से भरा हुआ है। चंदेल वंश भर जाती से बन गया। सर हेनरी इलियट इसी तथ्य को लेकर एक सिद्धान्त का प्रतिपादन भी कर दिया, जिसमे कहा गया है की भरो और अहीरो से परस्पर वैवाहिक संबंधो के अनेक प्रमाण उपलब्ध है। (कृपया देखे – अवध गजेटियर (1877), वाल्यूम I,पेज 111 स्प्लीमेंट ग्लासरी आफ इंडियन टर्म्स, वाल्यूम I {1845} पेज 72 लेखक एच इलियट, सेंसस आफ इंडिया, वाल्यूम XVI, पार्ट 1 1891 , 220 लेखक डी.सी. बैली, दी ट्राइब्स अँड कास्ट्स आफ दी सेंट्रल प्रांविसेस आफ इंडिया वाल्यूम।। 244 लेखक आर वी रुसेल )।
महाराजा खिरधर की राज्यसीमा के विषय मे विस्तृत विवरण अप्राप्त है। अवध गजेटियर, भाग एक, पृस्ठ 40 तथा पृष्ट 364 से पता चलता है की लखीमपुर खीरी जिले का नाम महाराजा खिरधर के नाम से पड़ा है। उन्नाव जिले के परगना पुरवा मे स्थित डन्ड़िया खेरा को भी महाराजा खिरधर ने बसाया। महिलाबाद, ककोरी, बिजनौर तथा मंगलसी क्षेत्र श्रावस्ती से जुड़ा हुआ था। अंबाला, मथुरा तथा मिर्जापुर पर उस समय क्रमशः नागवंशी शासक नागदत्त(295 ईस्वी), नगसेन (298 ईस्वी ) और एक हरशिव नाग विरसेन को कुछ विधद्वानों ने ही खिरधर कहा है । पर इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं दिया गया है। कुमाऊ जिले की विवरण मे एडविन एट्किंसन ने कहा है की इन्द्र्प्रस्थ पर राजा परीक्षित से प्रारम्भ होकर लक्ष्मीचंद के अंत तक 29 राजाओ की एक राजवाली प्राप्त है जो वहा के शासक हुये। इस राजावली के अंतिम शासक को उसके मंत्री मित्रसेन ने कत्ल कर दिया। मित्रसेन के वंश के नौ राजाओ ने इंद्रप्रस्थ पर शासन किया। इस वंश के अंतिम शासक मत्तीमल सेन का वध उसका मंत्री वीरबाहु ने कर दिया। वीरबाहु या धीरबाहु को ही कुछ इतिहासकर विरसेन भी कहते है है। कर्नल टाड , वार्ड तथा कनिघम ने खिरधर, धुरंधर तथा धीरसेन कहा है जो 24 दिन सात महिना तथा 42 वर्ष तक राज किया। (the Himalayan districts of the north-west province of India, 1884 vol page 411)
मुसलमान इतिहासकारो ने एसी संभावना दी है की शायद खिरधर को ही खिरधर कहा हो क्योकि कुमाऊ क्षेत्र मे उस समय नागभरशीवो का बाहुल्य था। इसलिए ऊक्त संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। एट्किंसन ने जो विवरण दिया है वह देखिये।
“according to the received kumaon version of the rajavali 29 princes ruled indraprastha beginning with parikshit and ending with lacchhmichand. The last price of this line was murderd by mitrasen, who was ucceeded by nine members of this family, ending with mattimalsen. He in tern was salim by his misiter birbahu (or dhirbahu), whose descendets ruled in indraprastha for fifteen generations ending with udaisen. The names of the 4rth dynesty are taken from my copy, tod, word and Cunningham”
मथुरा इंद्रप्रस्थ (वर्तमान दिल्ली) से अधिक दूर न होने के कारण विरसेन के वहा के शासक होने से पूर्ण रूप से इंकार नहीं किया जा सकता। यदि इस तरह यह गुत्थी सुलझा ली जाती है तो अंधकार युग मे एक प्रकाशमान सूर्य का पदार्पण हो जाता। पर इस तथ्य को और सुलझाने के लिए धैर्य व लगन की आवश्यकता है। अवध गजेटियर से ही सिद्ध होता है की परीक्षित के बाद अवध का सम्पूर्ण क्षेत्र भारशीवो के अधिकार मे हो गया। स्कन्द पुराण के अवनति खंड, अध्याय 77 के अनुसार कुशस्थली के दक्षिण मे स्थित “नागात्रय” नागो या भारशीवो का विस्तृत प्रदेश था।
कही कही पर खिरधर का नाम “खिरधर सेन “ भी लिखा गया है। ऐसा प्रतीत होता है की बौद्ध धर्म नामावली से प्रभावित होकर भारशिव राजाओ ने अपने नामो के साथ सेन, देव, प्रिय, आनंद, चंद्र, नाथ, मित्र, भद्र, पाल इत्यादि उपनाम जोड़ा है। ऐसी परंपरा यह सिद्ध करती है की भर जाती के लोग अधिकतर बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। यह परंपरा मगध के भारशिव सम्राट बिंबिसार, से ही प्रारम्भ हो गयी थी जो बौद्ध धर्म मे दीक्षित हुआ था।
लखीमपुर खीरी मे स्थित आज का परमहंस आश्रम महाराजा खिरधर के शिकारगाह के खंडर पर बनाया गया है। इसी स्थान पर खिरधर का कभी विश्राम-स्थल बनाया गया था। आज उसका केवल भग्नावशेष ही दिखाई पड़ता है। यहा दुर्ग की स्थापना की गयी थी। विजयनगर का राजा शक्तिमान सिंह इस दुर्ग पर कालांतर मे आक्रमण कर अपने साम्राज्य का हिस्सा बना लिया। इसे शकतेश्गड भी कहा जाता है।
महाराजा खिरधर द्वारा निर्मित अनेक देवल आज भी कई स्थानो पर विधमान है। मगध के नाग भारशिव शासक महाराजा बिंबिसार के बाद नाग भारशीवो का पुरुत्थान करने के लिए खिरधर ने अपने प्राचीन नाग राजाओ की यादगार मे कई देवल बनवाये। इनमे से भर-देवल जो की कर्कोटक नाग की तथा भीतरगांव का देवल झिझी नाग की यादगार मे बनवाये गए है, प्रसिद्ध है, इन दोनों देवलो का वर्णन करना यहा अनुपयुक्त न होगा।
भर देवल
इस देवल का वर्णन 1838 ईस्वी मे बंगाल का अंग्रेज़ मेजर किट्टोई (MAJOR KITTOE) ने अपनी पुस्तक “इल्यूस्ट्रेशनस आफ इंडियन आर्किटेक्चर” मे किया है ( illustrations Of Indian Architecture, By MAJOR KITTOE, Thacker And Co. Calcutta 1838 Long Folio) किटटोई ने इस देवल का चित्र भी अपनी पुस्तक मे प्रकाशित किया है और इसे “कर्कोटक नाग का मंदिर” बताया है, (Temple Of Karkotak Nag). मेजर जनरल कनिघम ने 1884-85 ईस्वी मे एक सर्वे के दौरान जब इस देवल को देखा तो उन्हे किटटोई के विवरण की याद ताजी हो गयी। कनिघम ने किटटोई द्वारा दिये गए विवरण को सारांश रूप मे चित्र के साथ अपनी पुस्तक “आर्कियोजिकल सर्वे आफ इंडिया” मे दिया है । मई इस देवल के चित्र को देख रहा हु पर दुख इस बात का है की पुस्तक का पृष्ट इतनी जर्जर अवस्था मे है की इसका चित्र पुनः नहीं लिया जा सकता है फोटो कापी कराना दिक्कत भरा काम जन पड़ रहा है। (कृपया देखे- Archaeological Survey Of India, Report Of A Toawn In Bundelkhand And Rewa In 1883-84, And Of A Tour Iin Rewa Bundelkhand, Malwa And Gwalior In 1884-85, By Major General A Cunningham, CSI, CIF; Vol XXI- Part I&II(1885)
इस पुस्तक के पृष्ट index, plate III,IV पर यह चित्र छापा गया है और विवरण पृष्ट 4,5,6,7 पर दिया गया है। कनिंघम ने किटटोई द्वारा दिये गए चित्र को दो-तिहाई कमकर वह चीत्र छापा है और किटटोई के शब्दो को इस प्रकार दिया है।
“The Elegant Ruin Represented In The Accompanying Plate (I Am Given A Representation Of Kittoe’s View In Plate Iv, Reduced To Two –Thirds Of Original) Is Situated On The Bank Of Jumna, On The Vundelkhan Side, A Few Miles Below The Town Of Mhow. It Is Dedicated To Siva Uder The Denomination Of Karkotak Nag. The Work Is Executed Is A Most Eexquisite And Elaborate Style, In Hard, Close Grained Sand Stone. The Greater Part Indeed, The Main Body, Of Building Has Long Since Fallen To The Ground. The Only Portion Remaining, And Which, I Hae Faintly Attemted To Represent, Is That Still Existing Of The Nandi Sabha (Or Portico), In Which Siva’s Bull Nandi Is Always Placed. It Is Not Known Who Existing Of The Nandi Sabha (Or Portico)In Which Shiva’s Bull Nandi Is Always Placed. It Is Not Known Who Existed This Truly Beautiful Specimen Of Hindu Scul[Ture And Archetectur. There Is A Small Village Close By; The Superstitious Inhabitants Of Which Informed Me That A Hudge Black Serpent Or Nag, Inhabits The Temple, And Is Occasionally Visible.”
अथार्थ “ध्वन्शावशेष का सुंदर चित्र प्ले मे प्रदर्शित किया गया है (मई जनरल कनिंघम) किटटोई द्वारा दिये गए चित्र को लगभग दो तिहाई-भाग छोटा करके प्लेट IV मे चित्र दिया हु )
जो की यमुना नदी के किनारे पर स्थित है और महुवा नगर से कुछ मील नीचे की तरफ, बुंदेलखंड की ओर है। यह कर्कोटक नाग के नाम से बना हुआ शिव को समर्पित किया गया है। इस पर चित्रकारी का काम उत्तम और सुसमपत्र ढंग से पूरा किया गया है। जो तरासे गए सख्त, एक दूसरे से जुड़े हुये, बलुआ पत्थरो से निर्मित है। मुख्य देवल का विशाल भाग वास्तव मे कुछ समय पहले जमीन पर गिर चुका है। केवल उसका कुछ ही भाग शेष बचा है। और उसी बचे हुये भाग को, जो की अभी भी असीत्तव मे है, इसी के धूधले चित्र को मैंने प्रदर्शित किया है, यह बचा हुआ भाग नंदी सभा का है जहा शिव का बाई नंदी सदैव रहता था। इसे प्रवेश-स्थल भी कहते है। यह अज्ञात है की किसने इस वास्तविक सुंदर, हिन्दुओ की मूर्तिकला और सुंदर शिल्पकला के नमूने को नष्ट किया। इस देवल से सटा हुआ एक छोटा सा गाँव है, जहा के अंधविशवाशी लोगो ने मुझे बताया की एक बड़ा नाग या साप मंदिर मे निवास करता है जो कभी-कभी दिखाई देता है”
उक्त विवरण किटटोई ने अपने भ्रमण के दौरान 1838 मे दिया था। मंदिर का ध्वन्शाशेष यमुना नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। यह कूथारो (kutharo) गाँव स बिलकुल सटा हुआ है। यह महुआ घाट के पूरब मे ठीक 11 मील दूरी पर तथा इलाहाबाद से पच्चीस मील पश्चिम दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित है। कुछ विद्वानो ने महुआ को मऊ कहा है, जो इलाहाबाद मे स्थित है। स्मरण रहे की भर आबादी के अधिकतर गाँव को मऊ कहा जाता था। अतः मऊ भरो द्वारा बसाया गया बताया जाता है। कनिंघम जब 1884-85 मे यहा का दौरा किया तो उसने लिखा है की देवल की स्थिति आज जानकरी मे एक तरह से पहुँच के बाहर हो गयी है। यहा अब कुछ भी नहीं बचा है। सिवाय उतार चढ़ाव भरी पगडंडी के। यह पगडंडी यमुना के पश्चिमी किनारे पर 11 मील तक चलती है और पूरब मे चार मील चलकर एक बड़े गाँव प्रतापपुर तक जाती है, जहा पत्थर की खाने स्थित है। कनिंघम ने इस प्रकार विवरण दिया है-
“the bar-dewal must have been a magnificent temple. Its position on the high projecting point overlooking the jumna is very fine one, and both in size and iin decoration the fan was worthy of its site. It is besides raised on a plinth or platform of 11 feet.” {archaeological survey of india, vol XXV (1885) page 5}
अर्थात “बर” (भर) देवल सुंदर कलाकृति का नमूना था। इसकी सुंदर निर्माण योजना उच्च कोटी की थी जो यमुना के दोनों किनारो से दिखाई देती थी। इसकी सज्जा किनारो से अति सुंदर लगती थी। इसके पायदान “11फीट से प्रारम्भ होकर बनाए गए थे”।
बर शब्द की व्याख्या कनिंघम ने कही-कही बरगद के पेड़ से भी की है। पर स्थानीय लोगो के अनुसार इसे भर-देवल कहा जाता है। कनिंघम को मंदिर के निकट एक बरगद का पेड़ भी मिला था। इसी कारण इस मंदिर को बर-देवल उन्होने कहा। बी ए स्मिथ ने बर शब्द का स्पष्टीकरण दिया है। -
“the name is usually spelt. “bhar” but spelling “bharr” would accurately represent the pronunociation.”
स्थानीय लोगो ने बताया की इसका निर्माण श्रावस्ती के महान एक भर राजा ने करवाया था। डाक्टर काशी प्रसाद जायसवालने कहा है की इसकी छत चिमटी थी और बराण्डे की छत पत्थरो की बनी हुई ढालू थी। इसका निर्माण काल अभी तक पहेली बना हुआ है। इसमे जो इंटे प्रयोग की गयी है वे मध्य प्राचीन इतिहास की जन पड़ती है।
“the root of this temple was flat, with sloping stones over the verandah. The cusped racket, which is a restoration on the plate by Cunningham, is found generally in mediaeval architecture, but no one can be definite as to how ancient its origin is. The large bricks found there and other features are decidedly early.” {HISTORY OF INDIA 150 A.D. TO 350 A.D. PAGE 30 BY K.P. JAYASWAL.}
भितरगांव का देवल
रिंद या अरिंद नदी के किनारे पर एक प्राचीन नगर बसा था जिसका प्राचीन नाम फूलपुर था। इसे फूलो का नगर भी कहा जाता था। आज इसी नगर पर एक गांव बस गया है जिसका नाम भितरगांव है यह गांव घाटमपुर विधान सभा क्षेत्र (उत्तर प्रदेश विधान सभा क्षेत्र 294 कानपुर) के अंतर्गत आता है। विधान सभा चुनाव 1993 मे इस क्षेत्र से जनता दल के राकेश सचान ने सपा के विजय सचान को 4476 मतो से हराया था। जनरल ए कनिंघम ने भितरगांव की स्थिति के बारे मे वे लिखते है-
“the village of bhitargaon or bari-bhitari is situated just half way between Cawnpore and hamirpur, at 20 miles to the south of the former place and 10 miles to the north-west of kora-jahanabad.”(ARCHAEOLOGICAL SURVEY OF INDIA, VOL XI, PAGE 40 (1880) A. CUNNINGHAM)
गाँव भितरगांव या बड़ी-भीतरीकानपुर तथा हमीरपुर के ठीक मध्य रास्ते मे स्थित है। यह कानपुर से 20 मील दक्षिण तथा कोरा-जहानाबाद से 10 मील उत्तर-पश्चिम की ओर बसा है।
देवल का यधपी बड़ा भाग धराशायी हो चुका है फिर भी उसके मुख्य द्वार का चित्र कनिंघम ने उक्त पुस्तक के पृष्ट 15 (index palte15) पर दिया है। दुख है की पुस्तक की फोटो कपि करना असंभव है। भितरगांव मे आज भी लोग इस जीर्ण शीर्ण मंदिर या देवल को झिझी नाग का देवल कहते है। ये झिझी नाग कौन थे? इसका स्पष्ट उल्लेख कही नहीं किया गया है। एक जनश्रुति के अनुसार झिझी नाग कर्कोटक वंश के एक शासक थे जो इस क्षेत्र मे राज करते थे। उन्होने यहा एक सुंदर पुष्प वाटिका का निर्माण करवाया था। कालांतर मे इसी स्थान पर एक सुंदर नगर बस गया। महाराजा खिरधर ने इस मंदिर मे झिझी नाग की भव्य प्रतिमा स्थापित की तभी से इस देवल का नाम “झिझी नाग” पड़ा। आज इसे स्थानीय निवासी भितरगांव का देवल कहते है।
यह देवल उत्कृष्ट कलाकृति का एक नमूना है जो सुंदर, अच्छी तरह पकी हुई 18*9*3 इंच की ईटों से बनाया गया है। 66 वर्गफीट, का यह देवल पौरव की ओर प्रवेशद्वार से युक्त है। इसकी दिवारे 8 फीट मोटी है। जो 47 फीट लंबी 36 फीट चौड़ी है।
“the brick temple named dewal is square of 66 feet, with the corners and a projecting, portico or entrance hall on the east. The walls are 8 feet thick. Altogether it is 47 feet long and 36 feet broad. It is built through out of large well burn bricks 18*9*3 inches, laidin mud morter.”(ARCHAEOLOGICAL SURVEY OF INDIA, VOL XI, PAGE 41 (1880) A. CUNNINGHAM)
कनिंघम ने बताया है की ईटों से बना हुआ प्राचीन समय का एशिया भर मे ऐसी सुंदर कलाकृति का कोई देवल नहीं है। इस सुंदर देवल को कब-किसने तोड़ा इसका प्रमाण उपलब्ध नहीं है। तेरहवि शताब्दी के पूर्वार्ध मे महाराजा सरसौल इस क्षेत्र के राजा थे भर जाती के सरसौल महाराजा ने इस देवल का पुनरोद्धार करवाया था। ऐसा भी उल्लेख मिलता है पर महाराजा सरसौल का इतिहास अज्ञात है। कानपुर जिले मे सरसौल एक विधानसभा क्षेत्र है जो इसी राजा के नाम से जाना जाता है। घाटम भी एक भर राजा का नाम था।